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________________ वही मैत्रकी है। इसी प्रकार उत्पत्ति तथा विनाश जिसके होते हैं वह वस्तु सदा एक ही है। अर्थात् पर्याय तो परस्परमें कथंचित् भिन्न हैं परंतु उन संपूर्ण पर्यायोका आश्रय द्रव्य कथंचित् एक ही है । भावार्थ-उत्पत्ति तथा विनाशरूप पर्यायोकी अपेक्षा दायद्यपि प्रत्येक द्रव्य उत्पत्ति विनाश सहित है तो भी वे उत्पत्ति विनाश ऐसे नहीं होते हैं कि जिसका नाश हो उसका सर्वथा नाश ही होजाय; कुछ वचै ही नही; तथा जिसकी उत्पत्ति हो उसकी उत्पत्ति जड़के विना ही होजाय । किंतु जो उत्पत्ति और नाश होते हैं वे ऐसे ही होते हैं जिनसे एक अवस्थासे द्रव्यकी दूसरी तीसरी आदिक अवस्था बदलती जाती है। इसीलिये प्रत्येक द्रव्यमें उत्पचि विनाशरूप धर्म होकर भी स्थिरपना एक ऐसा धर्म है जिसके बलसे द्रव्य सदा ही किसी न किसी अवस्थामें विद्यमान बना रहता है । इस प्रकार प्रत्येक वस्तु उत्पाद व्यय ध्रौव्य इन तीनो धर्मो कर सदा सहित है । और हे जिन ! अर्थात् रागादि दोषोंके नाश करनेवाले भगवन् ! इसी प्रकारसे वस्तुका प्रत्यक्ष अवलोकन करता हुआ भी जो कोई अदि || उपदेशी हुई स्याद्वादरूप आज्ञाकी अवहेलना करता है वह मनुष्याकारधारी पशु या तो वातकी है अथवा पिशाचकर दवाया हुआ है । यहांपर आपकी आज्ञा ऐसा अर्थ त्वदाज्ञा शब्दका होता है। 'आ' नाम पूर्णरूपसे अर्थात् वस्तुके जितने धर्म हैं उन | संपूर्ण धर्मो सहित जीवादि पदार्थ जिसके द्वारा 'ज्ञायन्ते' नाम जाने जाते हैं उसको आज्ञा कहते हैं । आगम, शासन उपदेशादि भी आज्ञाको ही कहते हैं। आपकी जो आज्ञा है उसको त्वदाज्ञा कहते है । यद्यपि अवज्ञा करनेवाले बहत है तो भी जो 'जो कोई ' ऐसा एक कोई ही ग्रहण किया है सो यह एकवचन अवज्ञा करनेवालोके समूह की अपेक्षासे कहा है अथवा तिरस्कारकी दृष्टि से एकवचन कहा है । जिसको बक बादका रोग होजाता है उसको बातकी अथवा वातुल कहते हैं। वह विना परीक्षा किये ही कुछ न कुछ बका करता है। जो अविवेकी आपके वचनोकी अवज्ञा करता है वह भी वातुलके समान ही है इसलिये उसको भी वातकी कहा है। इसी प्रकार पिशाचकी भी उसको कहते हैं जिसको पिशाच दवालेता है अर्थात् जो भूतोंकर घिरा हुआ हो । पिशाचोंकर घिरा हुआ मनुष्य जिस प्रकार विना विचारे ही कुछ न कुछ प्रलाप करता है उसी प्रकार आपके वचनोकी अवज्ञा करनेवाला भी पिशाचकीके समान बुरे भलेका कुछ विचार न करता हुआ आपकी अवज्ञा करता है इसलिये पिशाचकीके समान ही है। इस स्तोत्रमें जो 'वा' शब्द पड़ा है उसका अर्थ या तो समुच्चय करना है अथवा उपमान है । | अर्थात् वातकी शब्दका अर्थ वायल और पिशाचकी शब्दका अर्थ पिशाचोंकर घिरा हुआ होता है परंतु यहांपर वायलके
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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