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________________ होती नहीं है । और यदि चैतन्य धर्म पृथिव्यादिकोका परिणाम रूप हो तो उसके साथ साथ कठोरता आदिक धर्म भी जो पृथिव्यादिकोंके हैं मिलने चाहिये परंतु चैतन्यके साथ साथ कठिनतादि धर्म कहीं नहीं मिलते हैं । अणव एवेन्द्रियग्राह्यत्वरूपां स्थूलतां प्रतिपद्यन्ते तज्जात्यादि चोपलभ्यते । तन्न भूतानां धर्म्मः फलं वा उपयोगः । तथा भवांश्च यदाक्षिपति तदस्य लक्षणम् । स चात्मा स्वसंविदितः । भूतानां तथाभावे बहिर्मुखं स्यानौरोऽहमित्यादि तु नान्तर्मुखं; वाह्यकरणजन्यत्वात् । अनभ्युपगतानुमानप्रमाणस्य चात्मनिषेधोऽपि दुर्लभः । धर्मः फलं च भूतानामुपयोगो भवेद्यदि । प्रत्येकमुपलम्भः स्यादुत्पादो वा विलक्षणात् । १ । इति काव्यार्थः । जो प्रथम रूप होते है वे ही कभी निमित्त पाकर इंद्रियोंके विषयभूत होनेयोग्य स्थूलपना धारण करलेते हैं परंतु जाति जो अणुअवस्थामें थी, स्थूल होनेपर भी वही दीखती है, जातिमें भेद नहीं होता है । उपयोग तो पुद्गलसे एक भिन्न ही जातिका है इसलिये पृथिव्यादि भूतोंसे उपयोगकी उत्पत्ति नहीं होसकती है । और आप जिस ज्ञानका आक्षेप करते हैं वही आत्माका चिन्ह है । और वह आत्मा अपने अपने ही अनुभवसे जान पड़ता है । और जो भूतोंसे इसकी उत्पत्ति हो तो मै गौरवर्ण हूं इत्यादि प्रतीति अंतरंगकी तरफ ही क्यों होती है? बाहिरकी तरफ ही होनी चाहिये । क्योंकि गौरादिकका ज्ञान बाह्य इंद्रियोंसे ही होता है। और जो अनुमानको प्रमाण ही नहीं मानता है वह अरूपी पदार्थका निषेध भी कैसे करसकता है । "उपयोग यदि भूतका ही धर्म अथवा कार्य हो तो प्रत्येकको उसका अनुभव होना चाहिये तथा विजातीय पदार्थसे भी विजातीयकी उत्पत्ति होनी चाहिये परंतु ऐसा होता नही है ।" ऐसा कहा भी है । इस प्रकार इस काव्यका अर्थ पूर्ण हुआ । 1 एवमुक्तयुक्तिभिरेकान्तवादप्रतिक्षेपमाख्याय साम्प्रतमनाद्यऽविद्यावासनाप्रवासितसन्मतयः प्रत्यक्षोपलक्ष्यमाणमप्यनेकान्तवादं येवमन्यन्ते तेषामुन्मत्ततामाविर्भावयन्नाह । यहां पर्यंत नाना प्रकारकी युक्तियां कहकर एकांत पक्षोका खंडन किया । अब यह दिखाते हैं कि; अनादिकालसे साथ लगे हुए अज्ञान और मोहके वश होकर जिन जीवोने अपनी बुद्धि दुराग्रहसे मलिन कररक्खी है वे अनेकांतवादको प्रत्यक्षसे देखते हुए भी अंगीकार नहीं करते हैं इसलिये वे उन्मत्त हो रहे हैं ।
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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