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________________ स्थाहादम.. और यह यदि प्रत्यक्षको प्रमाण मानसकता है तो उसी स्थानपर कि जहां प्रत्यक्षसे देखा हुआ विषय झूठा न हो। यदि जागा इस प्रकारसे प्रत्यक्षको प्रमाण न मानता हो तो जिससे स्नान, पीना, गोते लगाना आदिक प्रयोजन नहीं सधसकते हैं ऐसी भी ॥१६५ मृगतृष्णामें जो जलका ज्ञान होजाता है उसको भी प्रमाण क्यों नही मानता है ? भावार्थ-इससे यह स्पष्ट है कि सत्य पदार्थका जतानेवाला होनेसे ही प्रत्यक्ष ज्ञानको चार्वाकने प्रमाण माना है। और जब ऐसा है तो इष्ट पदार्थके बिना न रहनेवाले हेतुके द्वारा उत्पन्न अनुमानको तथा सत्य विषय कहनेवाले शब्दोके द्वारा उत्पन्न हुए आगमज्ञानको भी प्रमाण क्यों नहीं मानना चाहिये। अर्थात्-अवश्य मानना चाहिये । क्योंकि इनसे भी निश्चित किया हुआ विषय प्रत्यक्षके समान ही सच्चा होता है। और यदि कहों कि, अनुमान तथा आगम कहीं कहींपर झूठे भी दीखते हैं इसलिये ये दोनो प्रमाण नहीं है तो हम पूछते हैं कि क्या प्रत्यक्ष कहीं भी झूठा नहीं होता ? प्रत्यक्षसे भी जिसके तिमिरादि नेत्ररोग होजाता है उसको एक चंद्रमाके दो दीखते हैं इसलिये उसका प्रत्यक्ष अप्रमाण देखकर संपूर्ण प्रत्यक्षोंको अप्रमाण कहना पड़ेगा। और जो कहों कि वह प्रत्यक्ष तो प्रत्यक्ष ही नहीं है किंतु प्रत्यक्षाभास है और हम प्रमाण मानते हैं सो तो प्रत्यक्षको मानते हैं इसलिये नेत्ररोगादिके कारण एक चंद्रमाके दो दीखभनेवाले ज्ञानसे हमारे मंतव्यमें कुछ बाधा नहीं है तो इसी प्रकार यदि पक्षपात कुछ नहीं है तो अनुमान तथा आगम भी जब झूठे होते है तब वे अनुमानाभास तथा आगमाभास है और जब सच्चे होते हैं तब वे ही प्रमाण है ऐसा मानलेना चाहिये। इस प्रकार जब वस्तुओंकी व्यवस्था केवल प्रत्यक्षसे होना असंभव है तब जो चार्वाकने प्रत्यक्षमात्रसे ही जीव, पुण्य, पाप, तथा परलोकादिकोंका निषेध किया है वह निषेध करना मिथ्या ठहरता है। क्योंकि जो वस्तु प्रत्यक्षके गोचर ही नहीं है उनका प्रत्यक्षसे न दीखनेके । कारण निषेध करना बड़ी मारी मूर्खता है। ____एवं नास्तिकाभिमतो भूतचिद्वादोऽपि निराकार्यः। तथा च द्रव्यालङ्कारकार उपयोगवर्णने “न चायं भूत धर्मः सत्त्वकठिनत्वादिवन्मद्याङ्गेषु भ्रम्यादिमदशक्तिवद्धा प्रत्येकमनुपलम्भात् । अनभिव्यक्तावात्मसिद्धिः"। थ। इसी प्रकार नास्तिकोने जो प्रत्यक्षसे आत्मद्रव्य न दीखनेके कारण पृथिवी जल वायु अमि तथा आकाश इन पांचो भूतोके एकत्रित होनेसे ही चैतन्यका उत्पन्न होना मानलिया है वह भी असत्य है ऐसा दिखा ते है। द्रव्यालङ्कारके कर्ताने भी चेतनाका ॥१६५॥ वर्णन करते समय यही कहा है कि "यह चैतन्य पृथिव्यादि पांच भूतोका विकार नहीं है। क्योंकि जो पांचो भूतोंके धर्म,
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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