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________________ राजै.शा. स्याद्वादम.काही हो ऐसा नियम नहीं है। सामर्थ्य अर्थमे सिद्ध होनेके कारण संविदान शब्दका ऐसा अर्थ करना चाहिये कि अनुमानके विना वह नास्तिक दूसरोंके अभिप्रायोंको भलेप्रकार समझने में असमर्थ है । इस प्रकार वह नास्तिक अनुमान प्रमाण जबतक खीकार न ॥१६४॥ करै तबतक दूसरोके अभिप्राय जानना दुर्लभ है। इस प्रकार विना इच्छा भी इसको अनुमान प्रमाण खीकार कराया। । तथा प्रकारान्तरेणाप्ययमङ्गीकारयितव्यः । तथा हि । चार्वाकः काश्चित् ज्ञानव्यक्तीः संवादित्वेनाऽव्यभिचा रिणीरुपलभ्यान्याश्च विसंवादित्वेन व्यभिचारिणीः, पुनः कालान्तरे तादृशीतराणां ज्ञानव्यक्तीनामवश्यं धूप्रमाणेतरते व्यवस्थापयेत् । न च सन्निहितार्थवलेनोत्पद्यमानं पूर्वापरपरामर्शशून्यं प्रत्यक्षं पूर्वापरकालभाविनीनां ज्ञानव्यक्तीनां प्रामाण्याप्रामाण्यव्यवस्थापकं निमित्तमुपलक्षयितुं क्षमते । न चायं स्वप्रतीतिगोचराणामपि ज्ञान"व्यक्तीनां परं प्रति प्रामाण्यमप्रामाण्यं वा व्यवस्थापयितुं प्रभवति । तस्माद्यथादृष्टज्ञानव्यक्तिसाधर्म्यद्वारेणेदानी न्तनज्ञानव्यक्तीनां प्रामाण्याऽप्रामाण्यव्यवस्थापकं परप्रतिपादकं च प्रमाणान्तरमनुमानरूपमुपासीत । परलोका* दिनिषेधश्च न प्रत्यक्षमात्रेण शक्यः कर्तु संनिहितमात्रविषयत्वात्तस्य । परलोकादिकं चाप्रतिपिध्य नायं सुख* मास्ते । प्रमाणान्तरं च नेच्छतीति डिम्भहेवाकः। को अब प्रकारांतरसे भी चार्वाकको अनुमानादि प्रमाण अगीकार कराते है । चार्वाक किसी समय कुछ ज्ञानोको सत्य होनेके . कारण प्रमाणभूत मानकर तथा जो ज्ञान झूठे थे उनको अप्रमाणभूत मानकर फिर कभी दूसरे समय जब पूर्ववत् ५ सत्य असत्य ज्ञानोको देखता होगा तब उनको अवश्य ही पहिलेकी तरह प्रमाणभूत या अप्रमाणभूत ठहराता होगा । परंतु जिसमें पूर्वापर अवस्थाओंका संमेलनरूप ज्ञान होना असंभव है किंतु जो केवल वर्तमान कालवर्ती विषयको ही जानसकता है ऐसे प्रत्यक्ष ज्ञानसे पूर्वापर कालवर्ती प्रमाण किंवा अप्रमाणरूप ज्ञानोमें प्रमाणताका तथा अप्रमाणताका निश्चय ठहराना अशक्य है। भावार्थ-पहिलेके ज्ञानसदृश इस वर्तमान ज्ञानको देखकर प्रमाण किंवा अप्रमाण ठहराना केवल प्रत्यक्ष ज्ञानका कार्य नहीं है। ॥१६४॥ । क्योंकि; पहिले सरीखा ही यह है इत्यादि पूर्वोत्तर विषयोंका जोड़रूप ज्ञान होना प्रत्यक्षका कार्य नहीं है। प्रत्यक्ष केवल वर्तमान कालके विषयको ही जानसकता है कि यह है इत्यादि । जो पूर्वोत्तर समयवर्ती दो पदार्थोंका मिला हुआ ज्ञान होता है वह ज्ञान भिन्न ही है । उसको प्रत्यक्ष नहीं कहसकते हैं । इसीलिये वह जुदा ही प्रमाण मानना पडता है । तथा यह नास्तिक चार्वाक उन यक्षमात्रेण शयायव्यवस्थापकं परमतिपदभवति । तस्माद्या
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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