SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 329
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नहीं है । स्तोत्रमें जो " त्वदुक्तानि” ऐसा बहुवचनांत पद पड़ा है उससे यह सूचित होता है कि और भी संपूर्ण कुमतवादी लोग प्रत्येक स्थानपर स्याद्वादका शरण लेकर ही यथार्थ वस्तुका प्रतिपादन करसकते है । जबतक आपके ( अर्हत्के) स्याद्वादका शरण नही लैगे तबतक कदापि निर्दोष वस्तुखरूप नहीं कहसकते हैं । क्योंकि; प्रत्येक वस्तुमें धर्म अनतो है; किसी धर्मका ज्ञान किसी नयसे होसकता है और किसी धर्मका किसी नयसे; एक नयसे संपूर्ण धर्मोका ग्रहण होना असंभव है इसलिये संपूर्ण | नयस्वरूप स्याद्वाद के माने बिना यथावत् वस्तुका ज्ञान होना असंभव है । यदि स्याद्वादका शरण न लेवै तो अंधगजन्यायके अनुसार वस्तुके एक एक अशका ही ज्ञान होसकैगा; और वस्तुका संपूर्ण स्वरूप ग्रहण करना असंभव ही रहैगा । । जन्मके अंधे मनुष्य, हाथीका खरूप जानलेनेकी इच्छासे हाथीके पास यदि जावै और उनमें से कोई तो टटोलकर हाथीकी पूंछ पकड़ै, कोई कान, कोई सूंड तथा कोई पैर तो इस प्रकार हाथीका एक एक अंग जांचकर पूंछ पकड़नेवाला तो हाथीका स्वरूप पूंछकासा कहैगा और कान पकड़नेवाला कानकासा, सूंड़ पकड़नेवाला सूंड़कासा तथा पैर पकड़नेवाला हाथीका स्वरूप खंभसरीखा कहैगा । इसी प्रकार जिस जन्मांधने जिस अंगको टटोला होगा वह उस हाथीका स्वरूप उसी अंगसमान कहैगा । इसीको अंधगजन्याय कहते हैं । यदि यहां विचार किया जाय तो जो अंधे मनुष्योंने हाथीका स्वरूप कहा है वह सर्वथा झूठा नही है। क्योकि; हाथीके एक एक अंगकी अपेक्षा वह खरूप हाथीका ही है, अन्य किसीका नहीं है । परंतु यदि हाथीके पूर्ण स्वरूपका विचार करते है तो जो एक एक अंधने कहा है उतना ही पूर्ण खरूप नही है । पूर्ण स्वरूप तो उन सब अंधोके कहे हुए खरूपोंको | मिलादेनेपर ही होता है । इसी प्रकार जन्मांधोंके समान कुमतवादियोंनें अनेक अंगोविशिष्ट हाथीके सदृश अनेक धर्मविशिष्ट जो वस्तु है उसका खरूप एक एक धर्मका ही आश्रय लेकर कहा है । किसीने सर्वथा भेद ही वस्तुका स्वरूप माना है किसीने अभेद | ही; किसीने नित्य ही; किसीने अनित्य ही, किसीने उभयात्मक ही तथा किसीने अवाच्य ही । इस प्रकार वस्तुका एक एक धर्म लेकर नाना प्रकारसे परस्पर विरुद्ध वस्तुखरूप कहा है । यद्यपि ये सपूर्ण वस्तुखरूप एक एक धर्मकी अपेक्षासे सच्चे है परंतु यदि पूर्ण स्वरूप विचारा जाय तो उतना ही नहीं है । किंतु उन सपूर्ण स्वरूपोंको मिलानेपर यथार्थ वस्तुका खरूप सिद्ध होता है। और इसीका नाम कथंचित् अथवा अनेकान्त अथवा स्याद्वाद है । श्रयन्तीति वर्तमानान्तं केचित्पठन्ति, तत्राप्यदोषः । अत्र च समुद्रस्थानीयः संसारः । पोतसमानं त्वच्छासनम् ।
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy