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________________ | उपजता है । पूर्वकीसी शक्तिविशिष्ट आगेके चिचक्षणका उत्पन्न होना ही वासना है । पहिला जो रूपादिक ग्रहण करनेवाला चित्तक्षण है उसको प्रवृत्तिविज्ञान कहते है और वह छह प्रकारका होता है । रूपरसाादिकके ग्रहण करनेवाले पांच विज्ञान तो निर्विकल्पक हैं और छट्टा विज्ञान सविकल्पक है । इन्ही ज्ञानोको चित्त कहते है । जिस ज्ञानमें विशेषाकाररूप नाना प्रकारके भिन्न भिन्न पदार्थ प्रतिभासित हों वह तो सविकल्पक कहाता है और जिसमें सब कुछ विज्ञानमय अभिन्न ही दीखै वह निर्विकल्पक कहाता है । विकल्प नाम भेदका है । उस छह प्रकारके ज्ञानके साथ साथ उत्पन्न हुआ और अहंकारको उपजानेवाला तथा | आलयविज्ञान जिसका दूसरा नाम है ऐसा जो एक प्रकारका चैतन्य है उससे पूर्वकीसी शक्तिविशिष्ट एक चित्तकी उत्पत्ति होती है । वासना भी उसीको कहते है । यह सव बौद्धका कहना सर्वथा अयोग्य है । क्योंकि; जो वासनाको पैदा करता है वह स्वयं अस्थिर है तथा जिसमें वासना उपजाई जाती है उसके साथ मिल भी नही सकता है । और जो यह पूर्वचित्तके समयमें उत्पन्न होनेवाला चैतन्यविशेष है वह वर्तमान कालवर्ती चित्तमें कुछ भी उपकार नही कर सकता है । क्योंकि; जो वर्तमानमें माना जाता है उसके खरूपमें न तो किसी धर्मका नाश होना ही संभव है और न किसी धर्मकी उत्पत्ति होना । वह तो जैसा उपजता है। तैसा ही नष्ट होजाता है । इस प्रकार वर्तमानके चित्तक्षणमें तो पूर्व चित्तक्षणद्वारा उपकार होना असंभव है ही किंतु आगामी चित्तक्षण में भी पूर्वके चित्तक्षणद्वारा उपकार होना असंभव ही है । क्योंकि; आगामी चित्तक्षणके साथ उसका कुछ भी सबंध नही होसकता है। जो स्वयं असंबद्ध है अर्थात् जो जिसके साथ मिल नही सकता है वह उसमें किसी प्रकारकी वासना भी नही पहुचा सकता है। ऐसा कहचुके है । इस प्रकार सौगत मतमें वासनाकी सिद्धि होना असंभव है । स्तुतिकर्ता श्रीहेमचंद्राचार्यने वासनाको स्वयं मानकर भी जो यहांपर भेदाभेदकी चर्चा की है वह सदासे अखंड प्रवर्तते हुए अविनाशी द्रव्यकी सिद्धि करनेकेलिये ही की है। | ऐसा समझना चाहिये । अथोत्तरार्धव्याख्या । तत इति पक्षत्रयेऽपि दोषसद्भावात्त्वदुक्तानि भवद्वचनानि भेदाभेदस्याद्वादसंवादपूतानि परे कुतीर्थ्याः प्रकरणान्मायातनयाः श्रयन्तु आद्रियन्ताम् । अत्रोपमानमाह तटादशत्यादि । तटं न पश्य - | तीति तदाऽदर्शी यः शकुन्तपोतः पक्षिशावकस्तस्य न्याय उदाहरणं तस्मात् । यथा किल कथमप्यपारपारावारान्तःपतितः काकादिशकुनिशावको बहिर्निर्जिगमिषया प्रवहणकूपस्तम्भादेस्तदप्राप्तये मुग्धतयोड्डीनः समन्ताज्जलैका
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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