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________________ स्याद्वादमं. ।। १५९ ।। पुण्यपापादिक आगे के दूसरे क्षणोंमें न पहुंच सकैगे किंतु फल बिना दिये ही पुण्यपापादिक क्षणनाशके साथ साथ नष्ट होजांयगे । इसलिये पहिले अनुभवको तथा पुण्यपापादिकोंको आगेके क्षणों में पहुंचानेकेलिये ही वासनाकी कल्पना की गई है । यह वासना नित्य होनेसे ही आगेके क्षणोंमें पहिले क्षणोंके पुण्यपापादिकोंको पहुंचा सकती है। परंतु यदि यह भी क्षण क्षणमें नष्ट होनेवाली मानीजाय तो स्मरण तथा पुण्यपापादिक क्षणनाशके साथ साथ नष्ट होजानेका जो दोषारोपण किया था वह दोषारोपण वासना माननेपर भी ज्योंका त्यों बना रहता है इसलिये वासनाका मानना न मानना बराबर है । इस भयसे यदि वासनाको नित्य ही मानने लगे तो इस नित्य पदार्थ के स्वीकार होनेसे बौद्धों के सिद्धांतमें बाधा आती है। क्योंकि, बौद्धोंके सिद्धांत में कोई भी पदार्थ नित्य नहीं है । और जब वासनाको नित्य मानलिया तो अन्य पदार्थों को भी नित्य माननेमें क्या बाघा है जो क्षणिक सिद्ध करनेके लिये इतना प्रयास उठानेका व्यसन लगा रक्खा है । अनुभयपक्षेणापि न घटेते । स हि कदाचिदेवं ब्रूयात्-नाहं वासनायाः क्षणश्रेणितोऽभेदं प्रतिपद्ये न च भेदं; किं त्वनुभयमिति तदप्यनुचितं; भेदाऽभेदयोर्विधिनिषेधरूपयोरेकतरप्रतिषेधेऽन्यतरस्यावश्यं विधिभावात् । अन्यतरपक्षाभ्युपगमस्तत्र च प्रागुक्त एव दोषः । अथवाऽनुभयरूपत्वेऽवस्तुत्वप्रसङ्गः । भेदाऽभेदलक्षणपक्षद्वयव्यतिरिक्तस्य मार्गान्तरस्य नास्तित्वात् । अनार्हतानां हि वस्तुना भिन्नेनवा भाव्यमभिन्नेन वा तदुभयाऽतीतस्य बन्ध्यास्तनन्धयप्रायत्वात् । एवं विकल्पत्रयेऽपि क्षणपरम्परावासनयोरनुपपत्तौ पारिशेष्याद्भेदाभेदपक्ष एव कक्षीकरणीयः । न च "प्रत्येकं यो भवेदोषो द्वयोर्भावे कथं न सः" इति वचनादत्रापि दोषतादवस्थ्यमिति वाच्यं; कुक्कुटसर्प नरसिंहादिवज्जात्यन्तरत्वादनेकान्तपक्षस्य । यदि कदाचित् बौद्ध कहै कि न तो मै वासनामें क्षणसंततिसे भेद ही मानता हूं और न अभेद ही मानता हूं किंतु भेदाभेद दोनोंका अभाव मानता हूं तो यह भी बौद्धका कथन अयोग्य है । क्योंकि, भेद तथा अभेद ये दोनो ऐसे धर्म है कि एकके निषेधसे दूसरा आही जाता है इसलिये भेदको न माने तो अभेद आपडता है और अभेदको न माने तो भेद आपडता है । दोनोका निषेध कदापि नहीं होसकता । और भेदाभेदमेंसे किसी एकको माने तो प्रत्येकके दोष ऊपर दिखा ही चुके है । और यदि भेदाभेद का अभाव माना ही जाय तो दोनोंके निषेध करनेपर कुछ रहेगा ही नहीं किंतु सर्वाभाव होजायगा । क्योंकि; रा. जै-शान ॥१५९॥
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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