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________________ राजै.शा. स्याद्वादमं करता है वह अपने ही सुखी होनेकेलिये, नकि दूसरेकेलिये । क्षणिक बौद्धोंके मतमें बंधता तो पहिला क्षण है और छूटता है N दूसरा इसलिये बंधे हुएकी मोक्षका तो अभाव ही रहा । ॥१५६॥ ___ तथा स्मृतिभङ्गदोषः । तथा हि । पूर्वबुद्ध्याऽनुभूतेऽर्थे नोत्तरबुद्धीनां स्मृतिः संभवति; ततोऽन्यत्वात्सन्ताना न्तरबुद्धिवत् । न ह्यन्यदृष्टोऽर्थोऽन्येन स्मर्यते । अन्यथा एकेन दृष्टोऽर्थः सर्वैः स्मर्यंत । स्मरणाऽभावे च कौतस्कुती प्रत्यभिज्ञाप्रसूतिः ? तस्याः स्मरणानुभवोभयसंभवत्वात् । पदार्थप्रेक्षणप्रबुद्धप्राक्तनसंस्कारस्य हि प्रमातुः स एवायमित्याकारेणेयमुत्पद्यते । अथ स्यादयं दोषो यद्यविशेषेणान्यदृष्टमन्यः स्मरतीत्युच्यते किं त्वन्यत्वेऽपि कार्यकारणभावादेव च स्मृतिः। भिन्नसंतानबुद्धीनां तु कार्यकारणभावो नास्ति; तेन संतानान्तरा णां स्मृतिर्न भवति । न चैकसांतानिकीनामपि वुद्धीनां कार्यकारणभावो नास्ति येन पूर्वबुद्ध्यनुभूतेऽर्थे तदुत्तरN बुद्धीनां स्मृतिर्न स्यात् । तदप्यनवदातम्; एवमपि अन्यत्वस्य तदवस्थत्वात् । न हि कार्यकारणभावाभिधानेऽपि तदपगतं; क्षणिकत्वेन सर्वासां भिन्नत्वात् । न हि कार्यकारणभावात् स्मृतिरित्यत्रोभयप्रसिद्धोऽस्ति दृष्टान्तः। तथा क्षणिकपना माननेसे स्मरण भी न होसकैगा ऐसा दोष आता है । जैसे एक बुद्धिके विचारको दूसरेकी बुद्धि नहीं समझ a सकती है क्योंकि वे दोनो बुद्धि परस्पर भिन्न है उसी प्रकार बुद्धिके प्रथम क्षण आगेके क्षणोको नहीं जानसकते है क्योंकि 12 वे पूर्वोत्तर कालवर्ती सभी बुद्धिक्षण परस्परमै भिन्न है । जो वस्तु जिस किसीने देखी हो उसका स्मरण उसके अतिरिक्त अन्य कोई भी नहीं करसकता है। यदि एकके देखे हुएका दूसरा भी सरण करसकता हो तो एकने जो चीज देखी है उसका स्मरण सभीको होना चाहिये । इस प्रकार जब आगेके बुद्धिक्षणोमें स्मरण ही नही होसकता है तो प्रत्यभिज्ञान कहांसे होगा क्योंकि IN प्रत्यभिज्ञान नामा ज्ञान तभी होता है जब पहिले देखे हुएका स्मरण हुआ हो तथा वर्तमानमें पहिलेके समान किसी चीजको KO अथवा विलक्षणको अथवा उसी चीजको अथवा अन्य प्रकारकी किसी चीजको प्रत्यक्ष देखा हो । भावार्थ-पहिले देखे हुएका स्मरण तो जैसे 'वह था' तथा वर्तमान किसीका ऐसा अनुभव करना जैसे 'यह है' ऐसे स्मरण तथा अनुभवके बाद उत्पन्न होने वाले जोड़रूप एक ज्ञानको प्रत्यभिज्ञान कहते है। जैसे वह यह है अथवा उससे यह भिन्न है अथवा यह उसके समान ही है, ॥१५६॥
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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