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________________ याद्वादम. ॥१५५॥ इसी प्रकार मोक्षका भी अभाव होजाता है। कर्मबंधके ऐसे नाश होजानेका नाम मोक्ष है जिसका फिर बंध न हो। ऐसे मोक्षका होना बौद्धमतके अनुसार असंभव है। प्रथम तो उसके मतमें आत्मा कोई वस्तु ही नही मानागया है इसलिये आगामी भवमें सुखी होनेके लिये प्रयत्न ही कोन करेगा जबतक संसार है तबतक जो ज्ञानक्षणरूप पर्याय माने है उनमेंसे भी प्रतिसमय पूर्वके सर्वथा नष्ट होते जाते है और आगेके नवीन उपजते रहते हैं। उनमें परस्पर कोई संबंध नहीं है इसलिये वे भी सुखी होनेकी | चेष्टा नहीं कर सकते हैं। चेष्टा वही करता है जिसको आगे चलकर सुखी होनेकी आशा हो । केवल दूसरोंके सुखी होनेके लिये कोई भी प्रयन नहीं करता है। जब उनमेंसे कोई भी ज्ञानक्षण नहीं ठहर सकता है किंतु सभी नष्ट होनेवाले है तो सुखी होनेकेलिये . प्रयत्न कोन करै । और प्रत्येक ज्ञानक्षणका सुखदुःख भी उसीके साथ नष्ट हो जाता है, आगे चलता नहीं है । इस दोषके दूर करनेके लिये यदि सब ज्ञानक्षणोमें सुखदुःखको पहुचानेवाली एक वासना मानीजाय तो जिस मतमें कोई भी पदार्थ स्थिर नहीं है उसमें वासना भी कोई स्थिर पदार्थ सिद्ध नहीं होसकता, जिसके द्वारा- सव क्षणों में सुखदुःखोंकी संतान चलती रहै । यदि वासनाको सच्ची तथा नित्य मानते हों तो वह आत्मा ही है । नाममात्रका भेद है। अपि च वौद्धा निखिलवासनोच्छेदे विगतविषयाकारोपप्लवविशुद्धज्ञानोत्पादो मोक्ष इत्याहुस्तच्च न घटते; कारणाऽभावादेव तदनुपपत्तेः । भावनाप्रंचयो हि तस्य कारणमिष्यते । स च स्थिरैकाश्रयाऽभावाद्विशेषानाधायकः प्रतिक्षणमपूर्ववदुपजायमानो निरन्वयविनाशी गगनलङ्घनाभ्यासवदनासादितप्रकर्षों न स्फुटाऽभिज्ञानजननाय प्रभवतीत्यनुपपत्तिरेव तस्य । समलचित्तक्षणानां स्वाभाविक्याः सदृशारम्भणशक्तेरसदृशारम्भं प्रत्यशक्तेश्चाकस्मादनुच्छेदात् । किं च समलचित्तक्षणाः पूर्व स्वरसपरिनिर्वाणाः । अयमपूर्वो जातः । सन्तानश्चैको न विद्यते । ५' वन्धमोक्षौ चैकाधिकरणौः न विषयभेदेन वर्तते । तत्कस्येयं मुक्तिर्य एतदर्थ प्रयतते? अयं हि मोक्षशब्दो १ सर्व क्षणिकमित्याद्युपदिष्टार्थविषयधारावाहिकबुद्धिसंतानोद्भवो भावनाप्रचयस्तस्या अपि वहुत्वम् ॥ २ ननु स्थायिसंस्काराभावेऽपि पूर्वपूर्वज्ञानक्षणत्वसित एवोत्तरोत्तरक्षण उत्पद्यते रक्तकर्पासबीजसंतानवदित्याह समलेति ॥ ३ ननूपदेशजन्यज्ञानप्रवाहस्य सदशारम्भणेऽपि प्रथम परोक्षतयेत्यLG स्य निर्मलस्यान्ते निर्मलतमस्य साक्षात्काराध्यायकतया न दोप इत्यत आह कि चेति ॥ ॥१५५॥
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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