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________________ स्थाद्वादमं. ॥१५४॥ मानते हैं। बौद्धमतमें ऐसा माना गया है कि विचारके जिस क्षणने कुछ सत्खरूप अथवा असत्वरूप कार्य किया है उस क्षणका आगेकी पर्यायोंकी तरफ सबंधरहित सर्वथा नाश हो जाता है इसलिये अपने आपको अपने कृत्यका फल खयं नहीं भोगना पड़ता है। जिसको उस कृत्यका फल भोगना पड़ता है वह एक नवीन ही उत्पन्न होता है इसलिये उसका वह कर्म किया हुआ नहीं होता । इसप्रकार जिस पहिले क्षणने कर्म किया था उसको भोगना न पड़ा किंतु वह यों ही नष्ट हो गया इसलिये किये हुए कर्मका फल भोगेविना ही नष्ट हो जाना सिद्ध हुआ। तथा जिस आगेके ज्ञान क्षणने स्वयं उस कर्मको किया । नहीं था उसको उसका फल भोगना पड़ा इसलिये वयं नहीं किये हुए कर्मका भी फल भोगना सिद्ध हुआ। इस कारिकामे कृतप्रणाश' शब्द जो पड़ा हुआ है उसका अर्थ किये हुए का नाश हो जाना होता है । परंतु यह शंका बनी ही रहती है । कि ऐसा क्या किया है जिसका नाश हो जायगा ? इस शंकाकी निवृत्ति करनेकेलिये आगे कहे हुए 'अकृतकर्मभोग' पदसे SN 'कर्म' शब्द लेकर 'कृतप्रणाश' शब्दके वीचमें भी जोड़ देना चाहिये और फिर ऐसा अर्थ करना चाहिये कि पूर्वकृत जो कर्म है ) उसका नाश फल भोगेविना ही हो जायगा । रचनाकी रीति सरल होनेसे भी प्रकरणानुसार यह अर्थ हो सकता है । तथा । क्षणिकपना माननेसे जिसका चारो गतिओंमें परिभ्रमण करना खरूप है ऐसा संसार भी सिद्ध न होसकैगा । अर्थात् परलोकका अभाव हो जायगा । क्योंकि, जब सभीका स्वभाव क्षणभगुर माना गया है तब परलोक जानेके लिये वचा कोन रहेगा। जीव इस जन्ममें जैसा कर्म करता है उसीके अनुसार परलोकमें जाकर सुख दुःख भोगता है। परंतु बौद्धमतमें तो ऐसी नित्य कोई चीज ही नहीं है जो जन्मान्तरमें जाकर सुखदुःख भोगनेकेलिये बनी रहै। क्योंकि; जो पूर्वके ज्ञानक्षण है वे आगे उत्पन्न होनेवाले क्षणोंके साथ कुछ भी सबध न रखकर पहिले ही नष्ट हो जाते है इसलिये जन्मांतरमें जानेके लिये ऐसा कोन वचता है जो वहांके सुखदुःख भोगै? और जो मोक्षाकरगुप्तने इस दोषके दूर करनेके अभिप्रायसे यह कहा कि जो कोई चेतनाका क्षण होता है वह आगेके दूसरे चैतन्यक्षणमें अपने खरूपका संस्कार उत्पन्न करके ही नष्ट होता है । जिस प्रकार जीवनके मध्यका प्रत्येक चैतन्यक्षण आगेके चैतन्यक्षणमें सस्कार डालकर ही नष्ट होता दीखता है। मरणके अंतसमयमें । ॥१५४॥ होनेवाला चैतन्यक्षण भी एक चैतन्यक्षण है इसलिये वह भी आगामी परलोकके प्रथम चैतन्यक्षणमें अपने सपूर्ण सस्कारको जोड़कर ही नष्ट होता है। इस प्रकार परिपाटी दिखलानेसे मोक्षाकरगुप्तने यह सिद्ध किया कि बौद्धमतके अनुसार भी.
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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