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________________ ॥१५३॥ नही किये हुए काँका ग.जे.शा. : स्याद्वादम. मूलार्थ-यदि वस्तुका खभाव क्षणभंगुर ही माना जाय तो पूर्वकृत कमौका फल विना भोगे ही नाग हो जायगा; स्वयं नहीं किये हुए काका फल भी भोगना पड़ेगा; ससारका, मोक्षका तथा स्मरणशक्तिका नाग होनायगा । अनुभवसिद्ध इन : दोषोंको नही गिनता हुआ आपके विरुद्ध मानता हुआ क्षणिकवादी जो वस्तुका अल्प क्षणभंगुर होना ही मानता है। हे भगवन् ! वह उसकी बडी धृष्टता समझनी चाहिये। व्याख्या-कृतप्रणाशदोपमकृतकर्मभोगदोपं भवभङ्गदोपं प्रमोक्षभगदोपं स्मृतिभङ्गदोपमित्येतान् साक्षादित्य नुभवसिद्धान् उपश्यानादृत्य साक्षात्कुर्वन्नपि गजनिमीलिकामवलम्बमानः सर्वभावानां क्षणभामुदयानन्तरवि| नाशरूपक्षणक्षयितामिच्छन् प्रतिपद्यमानरते तव परःप्रतिपक्षी वनाशिकः[ मीगत इत्यर्थः] अहो महासाहसिकः।। सहसा अविमर्शात्मकेन वलेन वर्तते साहसिकः । भाविनमनर्थमविभाव्य यः प्रवर्तते म एवमुच्यते । महांश्चासौ ! साहसिकश्च महासाहसिकोऽत्यन्तमविमृश्य प्रवृत्तिकारी । इति मुकुलितार्थः । व्याख्यार्थ-पूर्वकृत कर्माका फल भोगे बिना ही नाश हो जाना, खयं नहीं किये हुए कमौका भी फल भोगने पड़ना, संसारका नाश हो जाना, मोक्षका नाग हो जाना तथा स्मरणशक्तिका नाग हो जाना इन अनुभवसिद्ध दोपोको नहीं गिनकर" 18 संपूर्ण वस्तुओंको क्षणभंगुर माननेवाला तुम्मारा प्रतिपक्षी बौद्ध देखो ! बडा साहसी है !! जिन संगारमोक्षादिक मपूर्ण विषयोको IY क्षणिकवादी खयं मानता है उन्हीका अभाव सर्वथा क्षणभगुरगना माननेसे होता है तो भी जसे हनी नेत्र मूंदकर सब कुछ करता है तैसे ही मसारमोक्षादि संपूर्ण विषयोंका अनुभव करता हुआ तथा वस्तुकी स्थिति क्षणभगुर माननेसे संमारमोक्षादि । ) कुछ भी नहीं सिद्ध हो सकते है ऐसा समत्रता हुआ भी जो वस्तुको उत्पत्तिके अनंतर क्षण क्षणमें नष्ट होते हुए मानता है सोही । दोपोंकी तरफ ध्यान नही देना है। भावार्थ-हे भगवन् ! वस्तुका क्षण क्षणगे विनाश होना माननेवाला गह एक प्रकारका बौद्ध । IN आपके मतका द्वेषी है। क्योंकि, आपकी युक्तिरो तो वस्तुका सरूप कयंचित् नित्य तथा रुथनित् अनित्य सिद्ध होता है परतु .. टाइसने वस्तुका स्वरूप सर्वथा क्षणश्चमी माना है और यह मानना उमके ही आचरणमे दृषित सिद्ध होता है। आगे आनेवाले कप्टोको .. र विचारे विना ही अपनी शिरजोरीसे जो सहमा प्रवृन से उसको साहसी कहते है । इस बौदकी भी ऐसी ही प्रवृत्ति है। क्योकि ? संपूर्ण वस्तुओं को धजाना, मोक्षका नाममोगे बिना ही नाम हो । ॥२५३॥
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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