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________________ स्थाद्वादम. ॥१५२॥ जानना भी एक प्रकारकी क्रिया है इसलिये यह भी बिना किसी करणके नही होसकती है। और जो यह पूछा कि जिन पदार्थोको जानना हो उनके साथ साथ ही उनको जाननेवाला ज्ञान उपजता है अथवा उनके बाद 2 सो हम दोनो तरहसे मानते है। हमलोगोंका प्रत्यक्ष तो जो विद्यमान पदार्थ हों उन्हीको जानसकता है और स्मरणज्ञान वीती हुई वस्तुको ही जानसकता है परंतु शब्द सुननेसे उत्पन्न होनेवाला ज्ञान तथा अनुमानज्ञान तीनो कालके पदार्थों को जान सकते है। ये दोनो प्रकारके | ज्ञान यद्यपि निराकार ही है तो भी अतिव्याप्ति दोष नहीं है । और जो निराकार माननेमें यह दोष बतलाया था कि किसी पदार्थका इस प्रकार निश्चय नहीं होसकैगा कि यह घड़ा ही; अन्य कुछ नहीं है अथवा यह अमुक ही है अन्य कुछ के नहीं है सो यह दोष मानना भी भूल है । क्योंकि, ज्ञान किसी समय भी हो परंतु उसी पदार्थको जानसकता है जिसके ज्ञानको रोकनेवाला ज्ञानावरण कर्म तथा वीर्यातराय कर्म कुछ नष्ट होगया हो । इन शंकाओंके अतिरिक्त जो शका है वे सब आडम्बरमात्र है इसलिये उनको स्वीकार न करना ही शून्यवादीका तिरस्कार है। इस प्रकार प्रमाणका जो शून्यवादीने खंडन किया था वह मिथ्या हुआ। और प्रमाणका फल प्रमिति है, उस प्रमितिका अनुभव स्वयमेव होता है । जिस वस्तुका खयमेव । - अनुभव होसकता है उसका अनुभव उपदेशसे कराना व्यर्थ है। प्रमाणके फल दो प्रकारके है पहिला साक्षात् दूसरा परंपरासे उत्पन्न होनेवाला । इनमेंसे किसी पदार्थसबंधी अज्ञानका नाश हो जाना प्रमाणका साक्षात् फल है। केवलज्ञानका परंपरा फल संसारसे उदासीनता होना है और शेषके अल्पज्ञानियोके प्रत्येक ज्ञानका परंपरा फल इष्टानिष्ट पदार्थों में ग्रहण तथा त्यागकी बुद्धि उत्पन्न होना है तथा मध्यस्थ पदार्थमें मध्यस्थ भाव हो जाना परंपरा फल है। इस प्रकार प्रमाता आत्मा तथा प्रमाण, प्रमेय, प्रमिति इन चारों प्रकारके पदार्थोकी सिद्धि प्रमाणद्वारा होचुकी । इसलिये “न तो पदार्थ सवरूप ही है; न असत्रूप ही है, न सत् असत् दोनोरूप ही है और न सत् असत्के अभावस्वरूप ही है किंतु अध्यात्म विषयके ज्ञाताओंने इन चारो प्रकारकी कथनीसे जुदा कोई विलक्षण ही तत्त्व माना है" इस प्रकारका जो कहना है वह उन्मत्तकासा कहना है। ५ किं चेदं प्रमात्रादीनामवास्तवत्वं शून्यवादिना वस्तुवृत्त्या तावदेष्टव्यम्। तच्चासौ प्रमाणादभिमन्यतेऽप्रमाणाद्वा? न तावदप्रमाणात्तस्याऽकिंचित्करत्वात् । अथ प्रमाणात् तन्न। अवास्तवत्वग्राहकं प्रमाणं सांवृतमसांवृतं वा स्यात्? यदि सांवृतं' कथं तस्मादवास्तवाद्वास्तवस्य शून्यवादस्य सिद्धिः? तथा च वास्तव एव समस्तोऽपि प्रमात्रा१ अनिरूपिततत्त्वार्थी प्रतीति. सवृतिर्मता । तत्वार्थका निरूपण न करनेवाली प्रतीतिको सवृति कहते हैं। ॥१५२॥
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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