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________________ स्थाद्वादम ॥१५१॥ रा.जै.शा मेघपटलोंकी कभी कहीं हीनाधिकता होती दीखती है इसलिये कभी कहींपर उनका सर्वथा नाश भी होजाता है। अन्यत्र भी यह कहा है "जिन विकारोंकी क्रमक्रमसे कभी हानि कभी वृद्धि होती है उनका कभी सर्वथा नाश भी होजाता है ऐसा नियम है। जिस प्रकार मेघपटल कभी बढते कभी घटतेहुए दीखते है इसलिये कभी सर्वथा नष्ट भी होजाते है उसी प्रकार जीवके रागद्वेषादिक दोष भी कभी किसी जीवमें बढ़ते हैं तथा कभी घटते हैं इसलिये इनका कभी सर्वनाश भी होसकता है। जिस जीवके । रागादिक दोष सर्वथा विलीन होगये हों वही सर्वज्ञ आप्त भगवान् है। कदाचित् कहों कि जिन रागादिक दोषोंका जीवके साथ - अनादि कालसे सबंध है वे किसी प्रकार क्षीण नहीं हो सकते है परंतु यह कहना अयोग्य है। उपाय करनेसे उनका भी नाश / होसकता है । जबतक सुवर्ण खानिसे निकालकर शुद्ध नहीं किया हो तबतक उसमें जो किट्टिमा संसक्त होरही है वह अनादि कालसे ही होरही है परंतु जब उसको सुहागे अग्नि आदिकोका पुट देकर शुद्ध करते है तब सुवर्ण तथा किट्टिमा भिन्न भिन्न 12 होकर सुवर्ण सर्वथा शुद्ध होजाता है । इसी उदाहरणके अनुसार यद्यपि जीवके साथ रागादिक अनादि कालसे संसक्त होरहे है परंतु जब आत्मरूपी मलिन सुवर्णको रत्नत्रयरूपी अग्निपुटमें रखकर शुद्ध किया जाता है तब रागादिक तथा आत्मा भिन्न भिन्न होकर आत्मद्रव्य सर्वथा निर्दोष होसकता है। और जब दोप क्षीण होजाते है तब केवलज्ञान उपजता ही है। जिस स्वभावकी वृद्धि कुछ कुछ होती रहती है उसकी कहीं पूर्ण वृद्धि होजाना भी संभव है। इसी नियमके अनुसार ज्ञान गुणकी वृद्धि भी जो उत्तरोत्तर एकसे दूसरेमें अधिक होती हुई दीखती है वह किसी जीवमें सर्वोत्कृष्ट भी हो सकती है। जैसे आकाशको नांपनेपर बढता हुआ ही दीखता है परंतु इसकी भी वृद्धि कहींपर सर्वोत्कृष्ट है। केवलज्ञान होना इस अनुमानसे संभव है। तथा और भी कई अनुमानोंसे सर्वज्ञके ज्ञानकी सिद्धि होती है। कैसे खभावसूक्ष्म जो दृष्टिसे प्रत्यक्ष न होसकै ऐसे परमाणु आदिक, जिनके वीचमें बहुतसा व्यवधान पड़ा हो ऐसे सुमेरु आदिक तथा जिनमें कालका बहुतसा अंतर पड़गया हो ऐसे रामरावणादिक पदार्थ भी किसीको प्रत्यक्ष दीखने चाहिये । क्योंकि, अनुमानसे जब हम विचार करते है तब उनका होना सिद्ध होता है । जैसे यद्यपि पर्वतपर होनेवाली अग्नि हमको कभी कभी प्रत्यक्ष नहीं होती तो भी धूम देखकर अनुमानसे उसको सिद्ध करलेते है इसलिये वह हमको प्रत्यक्ष न होनेपर भी किसी न किसीको प्रत्यक्ष होसकती है उसी प्रकार यद्यपि परमाणु आदिक हमको प्रत्यक्ष नहीं है तो भी अनुमान द्वारा सिद्ध होनेसे किसी न किसीको प्रत्यक्ष भी अवश्य होने चाहिये । इसी प्रकार जो चंद्रसूर्यके ग्रहण आदिक । अनुमान द्वारा सिमी किसी न किसीको प्रत्यक्षतते भी धूम देखकर अनुमा होना सिद्ध होता है क पदार्थ भी किसामा व्यवधान । । सिद्ध होनेसे किसी न किस्मात्यक्ष होसकती है उसी मानसे उसको सिद्ध करसे यद्यपि पर्वतपर होनेवाली ॥१५॥
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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