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________________ स्याद्वादमं. ॥ १५०॥ पर्यायवाच्यः स सोऽस्तित्वं न व्यभिचरति । यथा घटादिः । व्यतिरेके रारविषाणनभोऽम्भोरुहादयः । तथा सुखादीनि द्रव्याश्रितानि गुणत्वाद्रूपवत् । योऽसौ गुणी स आत्मा । इत्यादिलिङ्गानि । तस्मादनुमानतोऽप्यात्मा | सिद्धः। आगमानां च येषां पूर्वापरविरुद्धार्थत्वं तेषामप्रामाण्यमेव । यस्त्वाप्तप्रणीत आगमः न प्रमाणमेव कपच्छेदतापलक्षणोपाधित्रयविशुद्धत्वात् । कपादीनां च स्वरूपं पुरस्ताद्वक्ष्यामः । / 1 ही नेता है। ऐसा नहीं प्रकार गोलाका और भी इस विषय अनुमान दिखाते है । अभिमत कार्योंकी तरफ जो मन दौडता है वह किसी न किसी दौडता है । क्योंकि जब दौडता है तब किसी बाछित पदार्थपरीचता है। ऐसा नहीं है कि दो निम्ति पदा पर भी पहुच जाता हो। जैसे बालकके हाथका गोला । यह गोला हा फेका जान वहादी है कि गोला फेका तो पूर्व दिशाकी तरफ जाय और पड़ना हो पश्चिम दिशा । इसलिये है उसी प्रकार मनको चलानेवाला आत्मा है । ओर भी आत्मा, चेतन, वन, जीव तथा पुरुष इत्यादिको प किसी द्रव्यके बिना उत्पन्न नहीं हो सकते है। क्योंकि पर्याय जितने होते है किसी न किसी उसके ही होते है। जैसे सरचा कलश इत्यादि पर्याय मृत्तिकाद्रव्यके हैं। तथा जिनका कोई आप इस नहीं मिलता है वे मनसुन कुछ होने दी नही । जैसे छट्टा भूत । छडे भूतका कोई मूलकारण नहीं है इसलिये छानून ने कहा है, मन कोई वस्तु नही है | आत्मा चेतन पुरुष इत्यादि नामवाले पर्यायोंका जो मूलकारण है उनका नाम आया है। तथा और भी कहते है । किसी विकृत पर्यायका नाम न होकर शुद्ध निर्विकार वा वान होनेने वाच्य अव कोई न कोई वस्तु है । जो जो शब्द विनासकेत शुद्ध वस्तुके वाचक होते है वे वे अपनी अपनी वस्तुकी सत्ता को कभी नहीं छोड़ते । जैसे घड़ा आदि । और जो शब्द किसी मकेतितमात्र वस्तुके वाचक होते है उन शब्दों के वायरूप पदार्थ कुछ भी नहीं होते है । जैसे गये। | सीग तथा आकाश कमल । तथा जो सुरादुगादिक है वे एक प्रकारके गुण अथवा समान है इसलिये उनका ना कुछ न कुछ अवश्य होना चाहिये | क्योंकि; गुण अथवा समायोंकी खिति किसी के बिना नहीं होती। जो उन आय है वही ॥ १५०॥ आत्मा है । इत्यादि अनेक सायनोसे आत्मा सिद्ध होता है इसलिये अनुमानसे भी जीवद्रव्य सिद्ध है। और आगमोम जो परस्पर विरुद्धता कही यह कहना भी ठीक नहीं है। क्योंकि सभी आगम तो परस्पर विरुद्ध पर्थको कहते ही नहीं है। जिन आगमो 1 " } रा.जै. खा. (4
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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