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________________ स्याद्वादम. क्योंकि, जो अनुभवका कर्ता होता है वही उसका स्मरण करसकता है । परंतु उस इंद्रियके नष्ट होजानेपर भी ऐसा स्मरण होता रा.जै.शा. का कि मैने संघा था, देखा था, सुना था इत्यादि; अथवा ऐसा ज्ञान भी होता है कि जिसने सूंघा था, देखा था. सुना था वह मै ॐ ॥१४९॥ी । और भी एक दोष यह है कि इंद्रियोंमेंसे प्रत्येकका विषय नियत है जैसे नेत्र रूपको ही जान सकते है, कान शब्दको ही । सुन सकते है इत्यादि । किसी भी इंद्रियकी ऐसी शक्ति नहीं है जो किसी एक ही इंद्रियसे रूपरसादिक सभी विषयोंका अनभव || होसकै। परंतु रूप रसादिक अनेक विषयोका अनुभव कोई एक करता अवश्य है, नही तो आमका रूप देखनेके अनंतर ही जीभपर पानी क्यों आजाता है ? अर्थात् यदि अपने अपने विषयको वे इंद्रिय ही जाननेवाली हों, दूसरा कोई एक सवोका अनुभवकरतान हो तो जब जिव्हा रसको चाखचुकै तभी उसपर पानी आना चाहिये परंतु देखते है कि सुन्दर फलके देखनेमात्र ही जिव्हापर पानी आजाता है। इसलिये गवाक्षगत प्रेक्षकके समान सर्व इंद्रियोंमें तथा मनमें रहकर प्रेरणा करनेवाला इंद्रियों के अतिरिक्त कोई दूसरा N"पदार्थ भी है। इस प्रकार इंद्रिय तो परतत्र होनेसे कारण ही है किंतु इंद्रियोंको प्रेरणा करनेवाला आत्मा एक भिन्न वस्तु सिद्ध हुआ। O तथा साधनोपादानपरिवर्जनद्वारेण हिताऽहितप्राप्तिपरिहारसमर्था चेष्टा प्रयत्नपूर्विका विशिष्टक्रियात्वाद्रथक्रियावत् । शरीरं च प्रयत्नवदधिष्ठितं विशिष्टक्रियाश्रयत्वाद्रथवत् । यश्चास्याधिष्ठाता स आत्मा सारथिवत्। तथात्रैव पक्षे इच्छापूर्वकविकृतवाय्वाश्रयत्वाद् भस्त्रावत् । वायुश्च प्राणापानादिः। यश्चास्याधिष्ठाता स आत्मा भस्त्राध्मापयितृवत् । तथाऽत्रैव पक्षे इच्छाधीननिमेषोन्मेषवदवयवयोगित्वाद्दारुयन्त्रवत् । तथा शरीरस्य वृद्धिक्षतभग्नसंरोहणं च प्रयत्नवत्कृतं; वृद्धिक्षतभग्नसंरोहणत्वाग्रहवृद्धिक्षतभग्नसंरोहणवत् । वृक्षादिगतेन वृद्ध्यादिना व्यभिचार इति चेन्न तेषामपि एकेन्द्रियजन्तुत्वेन सात्मकत्वात् । यश्चैषां कर्त्ता स आत्मा गृहपतिवत् । वृक्षादीनां च सात्मकत्वमाचाराङ्गादेरवसेयं किंचिद्वक्ष्यते च । ___ तथा हितकी साधनरूप सामग्रीके ग्रहण करनेमें और अहितके उपजानेवाली सामग्रीके छोड़नेमें जो चेष्टा होती है वह किसी न न किसी प्रयत्न द्वारा ही होसकती है। क्योंकि, वह चेष्टा भी एक प्रकारकी क्रिया है। क्रिया जितनी होती है वे सर्व किसी न ॥१४९॥ किसी प्रयत्नसे ही होती है। जैसे रथके चलनेकी जो क्रिया है वह हाकनेवालेके प्रयत्नसे अथवा बैल घोड़ोंके खीचनेरूप प्रयत्नसे होती है । जबतक यह प्रयत्न न किया जाय तबतक यह क्रिया भी नही होसकती है। और जो शरीर है वह जैसे रथ रथके चलनेकी
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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