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________________ शा. स्थाद्वादमं. ॥१४८॥ यच्चाहंप्रत्ययस्य कादाचित्कत्वं तत्रेयं वासना ।-आत्मा तावदुपयोगलक्षणः। स च साकाराऽनाकारोपयोगयोरन्यतरस्मिन्नियमेनोपयुक्त एव भवति । अहंप्रत्ययोऽपि चोपयोगविशेष एव । तस्य च कर्मक्षयोपशमवैचिच्यादिन्द्रियाऽनिन्द्रियालोकविषयादिनिमित्तसव्यपेक्षतया प्रवर्त्तमानस्य कादाचित्कत्वमुपपन्नमेव । यथा वीजं सत्यामप्यङ्करोपजननशक्तौ पृथिव्युदकादिसहकारिकारणकलापसमवहितमेवाङ्करं जनयति; नान्यथा । न चैतावता तस्याङ्करोत्पादने कादाचित्केऽपि तदुत्पादनशक्तिरपि कादाचित्की; तस्याः कथंचिन्नित्यत्वात् । एवमात्मनः सदा सन्निहितत्वेऽप्यहंप्रत्ययस्य कादाचित्कत्वम् । यदप्युक्तं तस्याऽव्यभिचारि लिङ्गं किमपि नोपलभ्यत इति तदप्यसारं; साध्याऽविनाभाविनोऽनेकस्य लिङ्गस्य तत्रोपलव्धेः। ' अहंकारकी उत्पत्तिका कारण जो आत्मा है सो तो सदा ही विद्यमान है इसलिये यदि अहंकार आत्मामें होता हो तो सदा ही होना चाहिये परंतु सदा नहीं होता है सो क्यों ? इस प्रश्नका उत्तर इस प्रकार है कि उपयोग नाम चेतनाका है । वह चेतना दोपकार है प्रथम निराकार दूसरी साकार । साकार चेतनाको ज्ञान कहते है और निराकारको दर्शन अथवा दर्शनोपयोग। ये ज्ञान दर्शन तो चेतनागुणके पर्याय हैं और चेतना सदा शाश्वता है और इन पर्यायोका मूल कारण है । पर्याय तो क्षणभंगुर | होते है परंतु गुण सदा विद्यमान रहता है तथा उसमें सदा कोई न कोई पर्याय उपजता तथा नष्ट होता ही रहता है। इसलिये चेतनाकी ज्ञान दर्शनरूप साकारनिराकार पर्यायोमेसे कोई न कोई पर्याय आत्मामें सदा होता ही रहता है। अहंकार भी एक प्रकारका ज्ञानरूप उपयोग है । आत्मामें बंधे हुए कर्मोमेंसे जिस समय जैसे ज्ञानावरण कर्मका क्षय तथा अनुदय होता है वैसा ही इन्द्रिय, मन तथा प्रकाशादिकोके सहारेसे इस आत्मामें ज्ञान उत्पन्न होता है । इस प्रकार आत्मामें ज्ञानोत्पत्तिकी शक्ति सदा रहनेपर भी ज्ञानके उत्पन्न होनेमें अनेक कारणोकी आवश्यकता होनेके कारण जब सर्व कारण मिलते है तभी ज्ञान प्रकट होसकता धू है, सदा नहीं। जैसे बीजमें अंकुर उत्पन्न करनेकी शक्ति यद्यपि सदा विद्यमान है तो भी अंकुरकी उत्पत्ति तभी होसकती है जब उत्पन्न होनेके योग्य मट्टी पानी आदिक सपूर्ण कारण एकत्रित होजाय । जबतक संपूर्ण कारण न मिलै तबतक अंकुरकी उत्पत्ति होना यद्यपि असंभव है तो भी उत्पत्ति न होनेसे ही ऐसा नही कहसकते है कि अंकुर उत्पन्न करनेकी शक्ति भी बीजमें कदाचित् ही होती है । क्योंकि, सभी शक्ति द्रव्यकी अपेक्षा सदा शाश्वती रहती है। इसी प्रकार यद्यपि आत्मा सदा सनिकट ॥१४८॥
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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