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________________ पदार्थोका दीखना असंभव है। 'सं' अर्थात् जैसा पदार्थ है तैसा 'वित्' अर्थात् जिसके द्वारा वस्तुखभाव जानाजाय उसको संवित् कहते हैं । और जहांपर अपने आपको जाननेका प्रकरण हो उस स्थानपर केवल जाननेमात्रका नाम संवित् अथवा ज्ञान है । ऐसी संवित्का अद्वैत क्या सो कहते हैं। दो पदार्थोंके रहनेका नाम द्विता है । द्विताको ही द्वैत भी कहते है। क्योंकि; द्विता शब्दका अर्थ द्वित्व है । यहांपर द्विताशब्दका जो कुछ अर्थ है उतने ही अर्थमात्रकी विवक्षामें द्विताशब्दके अनंतर व्याकरणके नियमानुसार "प्रज्ञादिभ्यः" सूत्रकर 'अण्' प्रत्यय हो जाता है । इस अणू प्रत्ययके होनेसे ही द्विताशब्दका 'द्वैत' व द्वैत अर्थात् परस्पर भेदरूप न हो उसका नाम अद्वैत है। बाह्य पदार्थोंको न मानकर सर्वको एक ज्ञानमय ही माननेका नाम अद्वैत है । पहिले कहचुके है कि संवित् नाम ज्ञानका है । इसलिये संवित् ही केवल सत्य है, अन्य कोई भी वाद्य पदार्थ यथार्थमें नहीं || है ऐसे ही विचारका नाम संविदऽद्वैत है। भावार्थ-जो कुछ दीखता है वह सर्व ज्ञान ही है; ज्ञानके अतिरिक्त और कुछ भी बाह्य पदार्थ सञ्चा नहीं है ऐसे विचारको संविदद्वैत कहते हैं। al तस्य पन्था मार्गः संविदद्वैतपथस्तस्मिन्। ज्ञानाद्वैतवादपक्ष इति यावत् । किमित्याह "नार्थसंवित्"। येयं वहिर्मुख तयाऽर्थप्रतीतिः साक्षादनुभूयते सा न घटते इत्युपस्कारः । एतच्चानन्तरमेव भावितम् । एवं च स्थिते सति किमित्याह " विलूनशीण सुगतेन्द्रजालम्" इति । सुगतो मायापुत्रस्तस्य सम्बन्धि तेन परिकल्पितं क्षणक्षयादि वस्तुजातमिन्द्रजालमिवेन्द्रजालं; मतिव्यामोहविधातृत्वात् । सुगतेन्द्रजालं सर्वमिदं विलूनशीर्णम् । पूर्व विलून पश्चात् शीर्ण विलूनशीर्णम् । यथा किंचित्तृणस्तम्बादि विलूनमेव शीर्यते विनश्यति एवं तत्कल्पितमिन्द्रजालं तृणप्रायं धारालयुक्तिशस्त्रिकया छिन्नं सद्विशीर्यत इति। संविदद्वैतरूप विचारके अनुसार प्रवर्तनेको संविदद्वैतपथ कहते है । संविदद्वैतपथ अर्थात् ज्ञानाद्वैतमत । इस संविदद्वैतपथके IN माननेमें कोनसा दोष आता है? पदार्थोका ज्ञान नहीं होसकता है । अर्थात् जो यह बाह्य पदार्थों की प्रतीति साक्षात् अनुभव की जाती है वह प्रतीति केवल ज्ञानाद्वैत माननेसे नही उत्पन्न होसकैगी। इसका विचार भी अभी करचुके हैं। इस कथनसे यह सिद्ध हुआ कि बाह्य पदार्थ भी अवश्य कोई सत्य पदार्थ है और जो बौद्ध लोग बाह्य पदार्थों को नहीं मानते है वह मानना झूठा है। यह |सिद्ध होनेसे क्या हुआ? सुगत (बुद्ध) का बनाया हुआ इंद्रजाल फट गया। सुगत अर्थात् मायापुत्र । समस्त पदार्थ क्षण क्षणमें नष्ट .ே இ. த. உதி தி. உ.உ. ம் உ
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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