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________________ सिद्ध हो तब अभेद सिद्ध करना सच्चा होनेसे अभेद साधक ऊपर कहा हुआ अनुमान सत्य कहा जासकै और जब अभेदसाधक यह अनुमान सत्य सिद्ध हो तब भेद जतानेवाला प्रत्यक्ष भ्रमात्मक कहा जासकै । इस प्रकार अनुमानका सच्चापना तभी सिद्ध हो सकता है जब यह प्रत्यक्ष झूठा होजाय और जब अनुमान सच्चा सिद्ध होजाय तब यह प्रत्यक्ष झूठा सिद्ध होसकै । ऐसे दोषको अन्योन्याश्रय दोष कहते है । यह दोष दुर्निवार है । क्योंकि; जो दोनोंमेंसे कोई भी एक दूसरेके विना सिद्ध नही होसकता है वह किसी प्रकार भी सिद्ध नही होसकता है । और भी तीसरा दोष यह है कि यदि बाह्य पदार्थ कुछ है नही तो स्थानकी ऐसी निश्चय प्रतीति क्यों होती है कि अमुक वस्तु अमुक स्थानपर ही है अन्यत्र नही है । यदि बाह्य वस्तु है ही नही तो | किसी खास स्थानका ऐसा संकल्पमात्र भी नही होना चाहिये कि अमुक वस्तु अमुक स्थानपर ही है अन्यत्र नही है । अनादि का - लसे प्रवृत्त हुई झूठी वासनाओंकी प्रवृत्तिसे किसी खास स्थान में संकल्पमात्रका होजाना मानना भी ठीक नही है । क्योंकि; | ज्ञानके अतिरिक्त वासना भी कोई सच्ची भिन्न वस्तु नही है इसलिये वासनासे भी स्थानका संकल्प निश्चय करना असंभव है । | यदि ज्ञानके अतिरिक्त यथार्थमें कोई बाह्य पदार्थ हो तो जहांपर वह पदार्थ होगा वहां ही उस पदार्थकी वासना होना भी माना जासकता है। क्योंकि; वासना उत्पन्न करनेका हेतु वहां विद्यमान है । परंतु जब ऐसा बाह्य पदार्थ ही कोई नही है जिसके | कारण वासना उत्पन्न हो सकती है तो वासना भी उस स्थानपर है जिस स्थानपर पदार्थ माना जाता है ऐसा निश्चय किस प्रकार हो' । अब यहां पर बौद्ध कहता है कि अमुक वस्तु अमुक स्थानपर ही है अन्यत्र नही है ऐसा संकल्प होनेका भी कोई कारण अवश्य है । कारणोमें जबतक अंतर न हो तबतक कार्योंमें परस्पर भेद नही होसकता है । और स्थानके नियम करनेका कोई बाह्य कारण तो है ही नही यह बात हम प्रथम ही कहचुके है इसलिये इसका कारण कोई दूसरा ही होना चाहिये । वह दूसरा कारण इस जीवके साथ लगी हुई नाना प्रकारकी वासना ही है । परंतु यह बौद्धका कहना १ 'दो पदार्थोंकी सिद्धि परस्पर एक दूसरेके आश्रित हो उसको अन्योन्याश्रय दोष कहते हैं । इसका उदाहरण जैसे—एक ताला ऐसा होता है जो विना तालीके बंद तो होजाता है परंतु विना तालीके खुल नही सकता है । ऐसे तालेकी ताली तो कदाचित् भूलसे मकान के भीतर ही रहगई हो और वह ताला मकानके वाहरसे लगादिया हो तो फिर जब ताली मिलजाय तब ताला खुलै और प्रथम ताला खुलै तो ताली मिलसकै । ऐसे प्रसंगपर एक कार्य दूसरा कार्य हो जानेके आश्रित है इसलिये न तो ताला ही खुल सकता है और न ताली ही आसकती है।
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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