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________________ सस्याद्वादमं. ॥१४०॥ (3 १ मैं हूं ऐसा ज्ञान किसी एक विषयमें सवोको समान नहीं होता है। एक जीव अपनेको मैं हूं ऐसा समझता है परंतु दूसरा उसीको मैं हूं ऐसा नहीं समझता है किंतु नू है ऐसा समझता है । परंतु नीलादिक किमी एका वस्तुका ज्ञान नव एकना ही होता है। इसलिये बाय वस्तुका जान अवश्य है । अर्थात् नीलादिक वा वस्तु यदि एक मनुष्यको यह ज्ञान हो कि यह सामनेकी वस्तु नीलरूपी है तो और भी दूसरे लोगोंको उसका ऐसा ही ज्ञान होगा कि यह नीली है । काचित् किमीको रोगादिके वश नीले पदार्थका पीतरूप भी ज्ञान हो तो भी वह ज्ञान अंतमें भ्रमरूप सिद्ध हो जाता है परंतु निर्विकार मनुष्यको सदा एक विषयमें सभीको एकसा ही ज्ञान होता है । इसलिये चाय पदार्थ अवश्य मानना चाहिये । नि कहाँ कि जब जीव स्वयं अपने आपका अनुभव करता है तब उसको में हूं ऐसा भागता है सो यह कहना भी ठीक नहीं है। क्योंकि ऐसा | कहना तो तभी शोभित हो सकता है जब अपने सिवाय औरका भी ज्ञान माना हो । यदि ऐसा माना ही नहीं है; किंतु जो | कुछ है वह आप ही है ऐसा जब बौद्धोका मंतव्य है तो "अपने आपको ही अनुभवता है" ऐसा बोलना किनप्रकार ठीक माना जाय ? ' अपने आपको ऐसा शब्द प्रतियोगीशब्द कहा जाता है। प्रतियोगी शब्द उमीको कहते हैं जिसके बोलनेपर उससे उलटे भिन्न पदार्थका भी प्रतिबोध हो जाय। अपने आप ऐसा शब्द भी तभी बोला जा सकता है जब अपने आपके सिवाय अन्य भी पदार्थ माने जाय । क्योंकि 'अपने आप' शब्दका अर्थ यही हो सकता है कि दूसरा नही किंतु | अपने आप । इसलिये जहां अपने आपके सिवाय दूसरे पदार्थ माने ही नहीं हैं वहा अपने आप ऐसा बोलना ठीक नहीं है । स्वरूपस्यापि भ्रान्त्या भेदप्रतीतिरिति चेत् हन्त प्रत्यक्षण प्रतीतो भेदः कथं न वास्तवः ? भ्रान्तं प्रत्यक्षमिति चेन्ननु कुत एतत् ? अनुमानेन ज्ञानार्थयोरभेदसिद्धेरिति चेकिं तदनुमानमिति पृच्छामः ? यद्येन मह नियमनोपलभ्यते तत्ततो न भिद्यते । यथा सञ्च्चन्द्रादसच्चन्द्रः । नियमेनोपलभ्यते च ज्ञानेन सहार्थः । इति व्यापकाऽनु|पलब्धिः । प्रतिषेध्यस्य ज्ञानार्थयोर्भेदस्य व्यापकः सहोपलम्भानियमस्तस्याऽनुपलब्धिर्भिन्नयोनीलपीतयोर्युगपदुपलम्भनियमाभावात् । इत्यनुमानेन तयोरभेदसिद्धिरिति चेन्न । संदिग्धानैकान्तिकत्वेनास्यानुमानाभासत्वात् । ज्ञानं हि स्वपरसंवेदनम् । तत्परसंवेदनतामात्रेणैव नीलं गृह्णाति । स्वसंवेदनतामात्रेणैव च नीलवुद्धिम् । तदेवमनयोयुगपदग्रहणात्सहोपलम्भनियमोऽस्ति । अभेदश्च नास्ति । इति सहोपलम्भनियमरूपस्य हेतोर्विपक्षाद् व्यावृत्तेः संदिग्धत्वात् संदिग्धाऽनैकान्तिकत्वम् । ॥१४०॥ रा.जे.गा.
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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