SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 284
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ த. இ. है और अवयवोंसे अवयवी सर्वथा भिन्न नहीं है इस अपेक्षासे यदि अवयवी विचारा जाय तो अवयवीमें भी कथंचित् अनेकपना सिद्ध है । और जो बौद्धने यह शंका की कि अवयवी जिन अवयवोमें रहता है उनमेंसे प्रत्येकमें सर्वांगरूप वसता है अथवा एक एक अवयवमें एक एक अंशरूपसे वसता है सो इसका उत्तर यही है कि उसमें ऐसे दो विकल्प हम नही मानते है। क्योंकि; अपने अवयवोंमें वह ऐसे एक प्रकारके अभेदरूपसे वसता है कि जबतक अवयवी वना रहै तबतक अपने अवयवोंसे वह भिन्न नहीं होसकता है । अविष्वग्भावसंबंध भी ऐसे ही संबन्धको कहते है । अर्थात् गुणगुणी, पर्यायपर्यायी, अवयवअवयवीका परस्पर जो ऐसा संबंध होता है कि जबतक आधाररूप वस्तु (पर्याय या द्रव्य ) नष्ट न हो तबतक गुणगुणी, पर्यायपर्यायी तथा अवयवअवयवी परस्परमें छूट नही सकते है उसीको अविष्वग्भावसंबंध कहते है। किं च यदि वाह्योऽर्थो नास्ति किमिदानी नियताकारं प्रतीयते नीलमेतदिति । विज्ञानाकारोऽयमिति चेन्न ज्ञानाद्वहिर्भूतस्य संवेदनात् । ज्ञानाकारत्वे त्वहं नीलमिति प्रतीतिः स्यान्न त्विदं नीलमिति । ज्ञानानां प्रत्येकमाकारभेदात्कस्यचिदहमिति प्रतिभासः कस्यचिन्नीलमेतदिति चेन्न; नीलाद्याकारवदहमित्याकारस्य व्यवस्थितत्वाभावात् । तथा च यदेकेनाहमिति प्रतीयते तदेवाऽपरेण त्वमिति प्रतीयते । नीलाद्याकारस्तु व्यवस्थितः; सर्वरप्येकरूपतया ग्रहणात् । भक्षितहृत्पूरादिभिस्तु यद्यपि नीलादिकं पीतादितया गृह्यते तथापि तेन न व्यभिचार स्तस्य भ्रान्तत्वात् । स्वयं स्वस्थ संवेदनेऽहमिति प्रतिभासत इति चेन्ननु किं परस्यापि संवेदनमस्ति? कथमन्यथा जास्वशब्दस्य प्रयोगः ? प्रतियोगिशब्दो ह्ययं परमपेक्ष्यमाण एव प्रवर्तते ।। __ और यदि बाह्य पदार्थ है ही नही तो ऐसा निश्चयरूप ज्ञान किसका होता है कि यह नील पदार्थ है ? यदि कहों कि यह नील है ऐसा आकार विज्ञानका ही होता है तो यह कहना ठीक नहीं है। क्योंकि ऐसा आकार तो अपने अंतःकरणके बाहिर जुदा पदार्थरूप दीखता है इसलिये विज्ञानरूप कैसा ? यदि विज्ञानाकार ही होता तो मै नील पदार्थ हूं ऐसी प्रतीति होनी चाहिये थी परंतु ऐसी प्रतीति तो होती ही नहीं है । यदि कहों कि ज्ञानोके प्रत्येक आकार जुदे जुदे होते है इसलिये किसी ज्ञानम तो ऐसा प्रतिभासता है कि मै हूं और किसी ज्ञानमें ऐसा प्रतिभासता है कि यह नील है सो यह कहना भी उचित नहीं है। क्योंकि जिस प्रकार किसी एक नीलादिक बाह्य वस्तुका ज्ञान सवोंको समान ही होता है कि यह नियमपूर्वक नील है उस प्रकार . இ GUE க. வி. . தி
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy