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________________ नही घटसकैगे कि "वह नष्ट तो होता नही है क्योंकि वह स्थावर है परंतु बलवान् विरोधीसे उसका नाश होजाता है"। यह कथन सर्वथा झूठ है कि देवदत्त तो जीरहा है परंतु किसी कारणवश उसका मरण होरहा है। यदि नष्ट होता है तो वह वस्तु अपने कारणो द्वारा नवीन उत्पन्न होता हुआ भी अविनाशी कैसा ? मरता भी हो और अमर भी हो यह कहना नही वनसकता है। इसलिये यदि अविनाशी है तो कभी भी नाश न होना चाहिये परंतु नाश दीखता तो है इसलिये अपनी उत्पत्तिके कारणो द्वारा उत्पन्न होते समय ही वस्तु नश्वर मानना चाहिये । इस कहनेसे उत्पन्न होते ही वस्तुका नाश सिद्ध होता है। और इसी प्रकार प्रत्येक पदार्थमें क्षणध्वंसीपना सिद्ध होता है। - प्रयोगस्त्वेवं “यद्विनश्वरस्वरूपं तदुत्पत्तेरनन्तराऽनवस्थायि । यथान्त्यक्षणवर्ति घटस्य स्वरूपम् । विनश्वरस्वरूपं च रूपादिकमुदयकाले" । इति स्वभावहेतुः । यदि क्षणक्षयिणो भावाः कथं तर्हि स एवायमिति प्रत्यभिज्ञा स्यात् ? उच्यते-निरन्तरसदृशाऽपरापरोत्पादादविद्यानुबन्धाच पूर्वक्षणविनाशकाल एव तत्सदृशं क्षणान्तरमुदयते । तेनाकारविलक्षणत्वाऽभावादव्यवधानाच्चात्यन्तोच्छेदेऽपि स एवायमित्यभेदाऽध्यवसायी प्रत्ययः प्रसूयते । अत्य न्तभिन्नेष्वपि लूनपुनरुत्पन्नकुशकेशादिषु दृष्ट एवायं स एवायमिति प्रत्ययः । तथेहापि किं न संभाव्यते ? सातस्मात्सर्वं सत् क्षणिकमिति सिद्धम् । अत्र च पूर्वक्षण उपादानकारणमुत्तरक्षण उपादेयम् । इति पराभिप्रायमङ्गी कृत्याह “न तुल्यकालः” इत्यादि। | इस प्रकरणमें अनुमान भी इस प्रकार वोला जासकता है । “जो विनश्वर है वह उत्पत्तिके अनतर भी ठहर नही सकता है । जैसे अंतसमयमें नष्ट होते हुए घड़ेका स्वरूप ठहर नही सकता है। इसी प्रकार अन्य भी रूपादिमय सर्व पदार्थ उदयके समय ही विनाशीक है इसलिये उत्पत्तिके अनंतर भी क्षणध्वंसी है अर्थात् ठहर नहीं सकते है"। इस प्रकार यह खभावहेतुवाला अनुमान है। यदि समग्र पदार्थ क्षणध्वंसी ही है तो यह वही है ऐसा प्रत्यभिज्ञान कैसे होता है ? (क्योंकि पूर्वकालमें देखे हुऐ पदार्थको ही दूसरी बार देखनेपर प्रत्यभिज्ञान होता है)। इस शंकाका समाधान यह है कि निरंतर एकसमान अनेक पर्यायोंकी उत्तरोत्तर उत्पत्ति होनेसे तथा १ अनुमानके साधनेवाले हेतु तीन प्रकार होते हैं एक कार्य हेतु, दूसरा स्वभाव हेतु और तीसरा सामान्यतो दृष्ट । जिस हेतुका साध्यके साथ Kalकार्यकारणभावादिक कोई भी संबंध-संभव नहीं हो -कितु स्वभावमात्र ही अविनाभावनियमका साधक हो वह स्वभाव हेतु है ।
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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