SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 263
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ये हि साध्यसाधनभावेन प्रतीयेते ते परस्परं भिद्यते । यथा कुठारच्छिदिक्रिये इति । एवं यौगाभिप्रेतः प्रमाणात्फलस्यैकान्तभेदोऽपि निराकर्तव्यः, तस्यैकप्रमातृतादात्म्येन प्रमाणात्कथंचिदभेदव्यवस्थितेः प्रमाणतया परिNणतस्यैवात्मनः फलतया परिणतिप्रतीतेः; यः प्रमिमीते स एवोपादत्ते परित्यजत्युपेक्षते चेति सर्वव्यवहारिभिरस्खलितमनुभवात् । इतरथा स्वपरयोः प्रमाणफलव्यवस्थाविप्लवः प्रसज्यत इत्यलम् । जो साध्यसाधनरूपसे प्रतीत होते है वे सर्वथा परस्पर भिन्न ही होते है। जैसे-कुल्हाड़ी और उसके द्वारा किसीका काटना| (छेदनकर्म ) ये दोनो जुदे जुदे है । इस प्रकार नैयायिक (योगमती ) ने जो प्रमाण और प्रमाणके फलमें सर्वथा भेद कहाहै वह भी मानना उचित नहीं है । क्योंकि; निश्चय करनेवाले प्रमाता पुरुषके साथ एकरूप होकर ही प्रमाण तथा प्रमाणके फलकी प्रवृत्ति होती है। इसलिये प्रमाणसे प्रमाणका फल किसीअपेक्षा एकखरूप भी सिद्ध होता है। यह भी क्योंकि प्रमाणपनेसे परिणत हुए आत्माकी परिणति ही फलरूप प्रतीत होती है। आत्माके सिवाय दूसरी जगह फलकी परिणति नहीं होसकती है। यह भी क्योंकि जो आत्मा किसी पदार्थका निश्चय (प्रमिति ) करता है वही आत्मा ग्राह्य होनेपर उस पदार्थको ग्रहण करता है, हेय होनेपर छोड़ देता है अथवा उदासीन होनेपर उपेक्षा करदेता है; ऐसी अवाधित प्रतीति सर्व संसारको है। ऐसी प्रतीति यदि न हो तो अपने तथा परके प्रमाण फलकी व्यवस्थाका नाश होजाय । यहांपर इतना खंडन ही बहुत है। al अथ वा पूर्वार्द्धमिदमन्यथा व्याख्येयम् । सौगताः किलेत्थं प्रमाणयन्ति । सर्व सत् क्षणिकं; यतः सर्व तावद् घटादिकं वस्तु मुद्रादिसंनिधौ नाशं गच्छद् दृश्यते । तत्र येन स्वरूपेणान्त्यावस्थायां घटादिकं विनश्यति तच्चेस्वरूपमुत्पन्नमात्रस्य विद्यते तदानीमुत्पादानन्तरमेव तेन नष्टव्यमिति व्यक्तमस्य क्षणिकत्वम् । अथेदृश एव स्वभावस्तस्य हेतुतो जातो यत्कियन्तमपि कालं स्थित्वा विनश्यति । एवं तर्हि मुद्गरादिसंनिधानेऽपि एष एव ) तस्य स्वभाव इति पुनरप्यनेन तावन्तमेव कालं स्थातव्यम् । इति नैव विनश्येदिति । सोऽयमदित्सोर्वणिजःप्रतिदिनं पत्रलिखितश्वस्तनदिनभणनन्यायः । तस्मात् क्षणद्वयस्थायित्वेनाप्युत्पत्तौ प्रथमक्षणववितीयेऽपि क्षणे क्षणद्वयस्थायित्वात्पुनरपरक्षणद्वयमवतिष्ठेत । एवं तृतीयेऽपि क्षणे तत्स्वभावत्वान्नैव विनश्येदिति ।। अथवा इस ऊपर कहे हुए स्तोत्रके पहिले आधे भागका व्याख्यान दूसरी रीतिसे करते है।-सौगतलोग इस प्रकारसे
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy