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________________ है । और इसीलिये यहां परस्पर विरोधरूप दोष भी संभव नहीं है। किंतु व्यवस्थाप्यव्यवस्थापकपनेकी अपेक्षामात्रसे साध्यसाधनपना है । इससे एक ही वस्तुका कुछ स्वरूप प्रमाणरूप तथा कुछ प्रमाणके फलरूप माननेमें विरोध नहीं आसकता है। यहांपर ऐसी व्यव-|| स्था करनेका हेतु समानपना ( ज्ञान तथा वस्तुका ) ही है और इस ज्ञानसे नीलादिसंवेदनकी व्यवस्था कीजाती है।" इत्यादि वि-11 वरण ( व्याख्यान ) किया है परंतु वह भी असत्य है। क्योंकि ज्ञानखरूप एक निरंश भावमें व्यवस्था होने योग्य (व्यवस्थाप्य) तथा व्यवस्था करनेयोग्य ( व्यवस्थापक ) ऐसे दो खभावोंका समावेश किस प्रकार होसकता है क्योंकि; व्यवस्थाप्यव्यवस्थापकभाव भाभी एक प्रकारका संबंध होनेसे दो पदार्थों में ही रहसकता है । इसीलिये एकखभावमें दो खभावोंका होना असंभव है। किंचाऽर्थसारूप्यमर्थाकारता । तच्च निश्चयरूपमनिश्चयरूपं वा? निश्चयरूपं चेत्तदेव व्यवस्थापकमस्तु। किमुभयकल्पनया ? अनिश्चितं चेत्स्वयमव्यवस्थितं कथं नीलादिसंवेदनव्यवस्थापने समर्थम् ? अपि च केयमाकारता ? किमर्थग्रहणपरिणाम आहोस्विदर्थाकारधारित्वम् ? नाद्यः सिद्धसाधनात् । द्वितीयस्तु ज्ञानस्य प्रमेयाकारानुकर-19 जाणाज्जडत्वापत्त्यादिदोषाघातः । तन्न प्रमाणादेकान्तेन फलस्याऽभेदः साधीयान् । सर्वथा तादात्म्ये हि प्रमाणफल रोधात् । न हि सारूप्यमस्य प्रमाणमधिगतिः फलमिति सर्वथा तादात्म्ये सिद्ध्यत्यति-IN प्रसङ्गात् । थोडे समयके लिये यह पूर्वोक्त विचार छोड़ भी दिया जाय तो भी अर्थसारूप्यशब्दका अर्थ ज्ञानका पदार्थके आकार होजाना है। सो यह अर्थसारूप्य भी निश्चयरूप है अथवा अनिश्चयरूप ? यदि निश्चयरूप मानाजाय तो इस निश्चयरूपको ही व्यवस्थापक कहसकते है; फिर व्यवस्थाप्य व्यवस्थापक इस प्रकार दो भाव माननेकी क्या आवश्यकता है ? और यदि अर्थसारूप्यको अनिश्चयरूप माना जाय तो जो खयं अव्यवस्थित ( अनिश्चित ) है वह नीलादिसंवेदनकी निश्चय करानेकी व्यवस्था कैसे करसकता है ? अर्थात् नीलादिसंवेदनका व्यवस्थापक कैसे होसकता है ? और भी-अर्थसारूप्यका अर्थ जो अर्थाकारता किया सो वह अर्थाकारता क्या चीज है? क्या पदार्थको ग्रहण करनेका परिणाम है अथवा उस ज्ञेय पदार्थके आकाररूप होजाना है? आदिका पक्ष तो ठीक नही। क्योंकि, पदार्थको ग्रहणकरनेरूप परिणाम तो पूर्वसे ही सिद्ध है इसलिये सिद्धको साधनेसे सिद्धसाधननामक दोष उपस्थित होजाता है। यदि द्वितीय पक्ष अर्थात् पदार्थके आकाररूप ज्ञानका होजाना माना जाय तो ज्ञानमें प्रमेयाकारका परिणमन होनेसे योर्न व्यवस्था तद्भावविरा
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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