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________________ प्रकार होसकता है ? क्योंकिः कार्यकी उत्पत्तिसे पहिले क्षणमें नियमसे कारण रह सकता है और कार्य नियमसे कारणके अनंतरवाले दूसरे क्षणमें ही व्यवधान रहित रह सकता है । यही अन्यत्र भी कहा है "एक ही कालमें फल (कार्य) तथा हेतु (कारण) नहीं रह सकते है।" फल अर्थात् कार्यके और हेतु अर्थात् कारणके खरूपको ही कार्यकारणभाव कहते है।सो यह कार्यकारणभाव समानकालमें संभव नहीं है। el अथ क्षणान्तरितत्वात्तयोः क्रमभावित्वं भविष्यतीत्याशङ्कयाह "हेतौ विलीने न फलस्य भावः" इति। हेतौ कारणे प्रमाणलक्षणे विलीने क्षणिकत्वादुत्पत्त्यनन्तरमेव निरन्वयं विनष्टे फलस्य प्रमाणकार्यस्य न भावः सत्ता निर्मूलत्वात् । विद्यमाने हि फलहेतावस्येदं फलमिति प्रतीयते । नान्यथाऽतिप्रसङ्गात् ।। __अब कार्यकारणोंमें क्षणमात्रका अन्तर पडनेसे क्रमवपिना होसकैगा ऐसी क्षणिकवादीकी आशंकाका "हेतौ विलीने न फलस्य भावः" ऐसा उत्तर देते है । अर्थात् क्षणिक होनेसे उत्पत्तिके वाद ही प्रमाणरूप हेतु ( कारण ) निरन्वय ( सर्वथा ) नष्ट होजानेपर प्रमाणके कार्यरूप फलकी निर्मूल अर्थात् कारणके विना ही उत्त्पत्ति होना असभव है । क्योकि | किसी भी कार्यरूप वस्तुका कारण विद्यमान रहनेपर ही यह इसका कार्य है ऐसी प्रतीति होसकती है। यदि कारणके विना भी Kल कार्यकी उत्पत्ति मानलीजाय तो विना माताके भी पुत्रकी उत्पत्ति होना इत्यादि अनेक अतिव्याप्तिरूप दोष उपस्थित होने लगेंगे। किं च हेतुफलभावः संबन्धः । स च द्विष्ठ एव स्यात् । न चानयोः क्षणक्षयैकदीक्षितो भवान् संवन्धं क्षमते ।। ततः कथमयं हेतुरिदं फलमिति प्रतिनियता प्रतीतिः? एकस्य ग्रहणेऽप्यन्यस्याऽग्रहणे तदसंभवात् "द्विष्ठसंवन्धसं-19 वित्तिनैकरूपप्रवेदनात् । द्वयोः स्वरूपग्रहणे सति संवन्धवेदनम्" इति वचनात् । तथा कार्यकारणभाव एक प्रकारका संबंध है। संबंध दो वस्तुओमें ही रहता है। और आपको सर्वथा क्षणक्षयकी वासनासे वासित होनेके कारण इन दोनोका ( प्रमाण और फलका) संबंध सहन नही हो सकता है इसीलिये किसी विवक्षित (निश्चित) पदार्थमें यह हेतु है, यह फल है ऐसी नियमित प्रतीति होना भी असंभव है। क्योंकि जब प्रत्येक पदार्थ क्षणध्वंसी ही माना जायगा तो कार्यकारणोंमेंसे एक समयमें एक ही उपस्थित रहसकता है और इसीलिये किसी एक समयमें कार्यकारणोमेंसे उस एकका ज्ञान होनेपर भी दूसरेका ज्ञान न होनेसे यह हेतु है, यह इसका फल है ऐसी प्रतीति होना असंभव है। "दो वस्तुओंमें रहनेवाले संबंधका
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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