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________________ नाम क्रिया है । परंतु यह क्रिया मानना सांख्यमतके विरुद्ध है। क्योंकि, सांख्यमती प्रकृतिको निष्क्रिय मानता है। और जो साद्वादम. भार जाजरा.जै. शा y स्फटिकादिकका दृष्टान्त भी इस विषयमें लिखा कि जैसे स्फटिक खयं क्रियारहित होनेपर भी लाल पुष्पादिक उपाधिका संबंध होनेसे प ॥१२२॥ स्फटिकमें रंग अपूर्व दीखता है परंतु वह यह दृष्टान्त भी ठीक नहीं क्योंकि, स्फटिकादिकमें लालपुष्पादिकका प्रतिबिंब तभी पडसकता है जब थोड़ी बहुत क्रिया मानी जाय । यदि पर्यायपलटनके विना भी स्फटिकादिमें प्रतिबिब पडता हो तो प्रत्येक साधारण पत्थरोंमें भी क्यों न पडै ? और कोई दूसरा उत्तर न होनेसे ऐसी क्रिया यदि चेतनामें मान ही लीजाय तो न चाहते हुए भी चेतनाशक्तिमें कर्तापना तथा भोक्तापना आ उपस्थित होता है । अथापरिणामिनी भोक्तशक्तिरप्रतिसंक्रमा च परिणामिन्यर्थे प्रतिसंक्रान्ते च तद्वत्तिमनुभवतीति पतञ्जलिवचनादौपचारिक एवायं प्रतिसंक्रम इति चेत्तर्हि " उपचारस्तत्त्वचिन्तायामनुपयोगी" इति प्रेक्षावतामनुपादेय एवायम् । तथा च प्रतिप्राणि प्रतीतं सुखदुःखादिसंवेदनं निराश्रयमेव स्यात् । न चेदं बुद्धरुपपन्नं तस्या जडत्वेनाभ्युपगमात् । अत एव “जडा च बुद्धिः" इत्यपि विरुद्धम् । न हि जडस्वरूपायां वुद्धौ विषयाध्यवसायः साध्यमानः साधीयस्तां दधाति । ___ सांख्यमती कहता है कि " भोक्ता जो पुरुष उसकी चेतना शक्तिमें न तो परिणमन ( पलटन ) होता है और न विषयकी तरफ सक्रमण ( गमन )। वह चेतना केवल विषयके परिणमनका तथा बुद्धिके प्रति संक्रमण होनेका अनुभव करती है" ऐसा पतजलिने कहा है । इस पतंजलिके वचनसे चेतनाका सक्रमण केवल उपचारसे ही सिद्ध होसकता है । यह साख्यमतीका कहना ठीक नहीं है। क्योंकि, यदि इस चेतनाके परिवर्तनका होना उपचारसे ही माना जाय तो “यथार्थ तत्त्वोंके निर्णयमें उपचारसे वस्तुका खरूप मानना निष्प्रयोजन है ( इसलिये न मानना चाहिये )" इस वचनके अनुसार यह उपचारसे माना हुआ चेतनाका परिवर्तन बुद्धिमानोंको ग्राह्य न होगा। और जब यह मानना झूठा ठहरा तो प्रत्येक प्राणीमें होनेवाला सुखदुःखका ज्ञान भी निराधार ही हुआ समझना चाहिये । कदाचित् कहो कि सुखदुःखका ज्ञान तो बुद्धिमें उपज सकता है परतु यह कहना भी ठीक ॥१२२॥ नहीं है। क्योंकि, बुद्धि तो साख्यमतीने जड़ मानी है। इन अनेक दोपोंके कारण ही बुद्धिको जड़ मानना भी विरुद्ध प्रतीत होता है । क्योंकि, बुद्धि भी यदि जरूप मानी जाय तो उसमें विषयोंका निश्चय होना सिद्ध न होसकेगा ।
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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