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________________ SEAR रा. .शा. स्थाद्वादम. ॥१९॥ होने लगता है। अर्थात् जो प्रतिबिम्ब बुद्धिमें पड़ता है उस प्रतिबिंबका प्रतिबिंब पीछेसे पुरुषरूपी दर्पणमें पड़ने लगता है। इस बुद्धिके प्रतिबिंबका पुरुषमें झलकना ही पुरुषका भोग हैइसीसे पुरुष भोक्ता कहाता है। अन्य कुछ भी भोगरूप विकार पुरुषमें नहीं होता है"। यही आसुरिने कहा है कि "बुद्धिमें भिन्न रहनेवाले पदार्थोंका प्रतिबिंब पड़नेपर आत्मामें भोक्तापना कहा जाता है । शादर्पणके समान निर्मल पुरुषमें यह भोग केवल प्रतिबिंब पड़नेमात्र है । जैसे निर्मल जलमें पड़ा हुआ चन्द्रमाका प्रतिबिंब जलका ही विकार समझा जाता है। इस भोगके विषयमें विंध्यवासीनामक ग्रन्थकार ऐसा कहता है कि "यह आत्मा खयं अविकारी होते हुए भी समीपमें रहनेवाले अचेतन मनको अपने समान चेतन बना देता है जैसे समीपमें लगाया हुआ रंग सफेद स्फटिकको रंगीनसा बना देता है (यह विकार यद्यपि निजी नहीं है तो भी जो निजीसा मालुम पड़ना है वही आत्माका भोग है)।" al न च वक्तव्यं पुरुषश्चेदगुणोऽपरिणामी; कथमस्य मोक्षः? मुर्वन्धनविश्लेषार्थत्वात् सवासनक्लेशकर्माशयानां च । 'वन्धनसमाम्नातानां पुरुषेऽपरिणामिन्यसंभवात् । अत एव नास्य प्रेत्यभावापरनामा संसारोस्ति; निष्क्रियत्वादिति। यतः प्रकृतिरेव नानापुरुषाश्रया सती बध्यते संसरति मुच्यते च न पुरुष इति वन्धमोक्षसंसाराः पुरुषे उपचर्यन्ते । यथा जयपराजयौ भृत्यगतावपि स्वामिन्युपचर्येते तत्फलस्य कोशलाभादेः स्वामिनि संवन्धात् तथा भोगापवर्गयोः प्रकृतिगतयोरपि विवेकाग्रहात् पुरुषे संबन्ध इति । “यदि पुरुष वयं निर्गुण तथा निर्विकार (अपरिणामी) है तो इसका मोक्ष कैसे? क्योंकि मुच धातुका अर्थ बंधनका छूटना " है ( इसी धातुसे मोक्ष शब्द बनता है)। और आत्मामें जब वासना क्लेश कर्मोंके संबंधसे होनेवाले नानाप्रकारके बंधन ही संभव नहीं है तो मोक्ष किसका ? इसीलिये जिसका दूसरा नाम प्रेत्यभाव या परलोक है ऐसा जो संसार वह भी इस आत्माका नही है। क्योंकि, संसार नाम परिभ्रमणका है सो क्रियारहित इस आत्मामें परिभ्रमण कैसे हो सकता है ?" यह शंका नही हो बन सकती है। क्योंकि, प्रकृति ही नानापुरुषोंके आश्रय रहकर बंधती है और फिर संसारमें परिभ्रमण करती है और फिर वह प्रकृति ही भ्रम दूर होनेपर मुक्त होती है, न कि पुरुष। परंतु प्रकृतिकी बंधन, संसार तथा मोक्षरूप अवस्था आत्मासे संवध रहनेके कारण आत्मामें आरोपित की जाती है। जैसे जय अथवा पराजय सेनाका होता है परंतु वह जय, पराजय उस सेनाके खामीका समझा जाता है। क्योंकि, खजानेआदिकका जय होनेपर लाभ अथवा पराजय होनेपर हानि इत्यादि जयपराजयका हानि
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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