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________________ रा.ज.शा. द्वादम. ॥१२०॥ कान, नाक, जिद्दा, स्पर्शन ये पांच तो ज्ञानेन्द्रिय है । वचन, हाथ, पाँव, गुदा (विष्टा निकलनेका द्वार) और लिग (मूतनेका द्वार ) ये पांच कर्मेन्द्रिय हैं । ग्यारहवां मन इंद्रिय है। पञ्चतन्मात्रेभ्यश्च पञ्च महाभूतानि उत्पद्यन्ते । शब्दतन्मात्रादाकाशं शब्दगुणम् । शब्दतन्मात्रा न्मात्राद्वायुः शब्दस्पर्शगुणः । शव्दस्पर्शतन्मात्रसहिताद्रूपतन्मात्रात्तेजः शब्दस्पर्शरूपगुणम् । शब्दस्पर्शरूपतन्मात्रसहिताद्रसतन्मात्रादापः शब्दस्पर्शरूपरसगुणाः । शब्दस्पर्शरूपरसतन्मात्रसहिताद्गन्धतन्मात्रात् शब्दस्पर्शरूपरसगन्धगुणा पृथिवी जायते इति । पुरुपस्त्वमूर्तश्चेतनो भोगी नित्यः सर्वगतोऽक्रियोऽकर्ता निर्गुणः सूक्ष्म आत्मा कपिलदर्शने इति । A पांच तन्मात्राओंसे पाच महाभूत उपजते है । शब्दतन्मात्रासे शब्दगुणवाला आकाश उपजता है। शब्द म्पर्श तन्मात्राओसे । |मिलकर शब्द तथा स्पर्शगुणवाला वायु उपजता है । शब्द, स्पर्श, रूप इन तीन तन्मात्राओसे मिलकर शब्द, स्पर्श, रूप गुणवाला अमितत्त्व उत्पन्न होता है। जिसमें शब्द, स्पर्श, रूप, रस ये चार गुण पाये जाते है ऐसा जलतत्त्व शब्द, स्पर्श, रूप, रस इन चार तन्मात्राओंसे मिलकर उत्पन्न होता है । शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध इन पांच गुणोंवाली पृथिवी शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध इन पाच तन्मात्राओंसे मिलकर उत्पन्न होती है । पच्चीसवां पुरुपतत्व अमूर्तिक है, चेतना गुण सहित है, सुख दुखोंका भोगनेवाला है, नित्य ( अविनाशी) है, सर्वगत है, क्रियारहित है, बुरे भले कर्मोका कर्ता खय नही है; वय निर्गुण है, सूक्ष्म है तथा आत्मखरूप है। कपिल( सांख्य )दर्शनमें ऐसा पच्चीस तत्वोका स्वरूप निरूपण किया है। ल अन्धपङ्गवत् प्रकृतिपुरुपयोः संयोगः। चिच्छक्तिश्च विषयपरिच्छेदशून्या; यत इन्द्रियद्वारेण सुखदुःखादयो विषया बुद्धौ प्रतिसंक्रामन्ति । बुद्धिश्चोभयमुखदर्पणाकारा । ततस्तस्यां चैतन्यशक्तिः प्रतिविम्बते । ततः सुख्यह दुःख्यहमित्युपचारः। आत्मा हि स्वं वुद्धेरव्यतिरिक्तमभिमन्यते । आह च पतञ्जलिः “शुद्धोपि पुरुषः प्रत्ययं वौद्धमनुपश्यति । तमनुपश्यन्नतदात्मापि तदात्मक इव प्रतिभासते" इति । मुख्यतस्तु वुद्धरेव विपयपरिच्छेदः। तथा च वाचस्पतिः “सर्वो व्यवहर्ता आलोच्य नन्वहमत्राधिकृत इत्यभिमत्य कर्तव्यमेतन्मयेत्यध्यवस्यति । ततश्च प्रवर्तते इति लोकतः सिद्धम् । तत्र कर्तव्यमिति योयं निश्चयश्चितिसन्निधानापन्नचैतन्याया बुद्धेः सोध्यवसायो ILalबद्धरेसाधारणो व्यापार" इति ।
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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