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________________ सादादम. ॥११८॥ मूलार्थ-चेतना तो पदार्थको खयं जानती नहीं है तथा बुद्धि खयं जड़खरूप है । आकाश शब्दसे उत्पन्न है । गन्धसे पृथिवी * उत्पन्न है । रससे जल, रूपसे अग्नि तथा स्पर्शसे वायु उत्पन्न है। जीव न बँधता है और न मुक्त होता है। इस प्रकार ) मूखोंने विरोधसे भरा हुआ क्या क्या नहीं लिखा है। व्याख्या-चित्-चेतनशक्तिरात्मस्वरूपभूता, अर्थशून्या-विषयपरिच्छेदविरहिता; अर्थाध्यवसायस्य बुद्धिव्यापारत्वादित्येका कल्पना । बुद्धिश्च महत्तत्त्वाख्या जडा-अनवबोधस्वरूपा इति द्वितीया । अम्बरादि-व्योमप्रॐ भृति भूतपञ्चकं शब्दादितन्मात्रजं, शब्दादीनि यानि पञ्च तन्मात्राणि सूक्ष्मसंज्ञानि तेभ्यो जातमुत्पन्नं शब्दादि तन्मात्रजमिति तृतीया । अत्र "च" शब्दो गम्यः । पुरुषस्य च प्रकृतिविकृत्यनात्मकस्यात्मनो न बन्धमोक्षौ; किं तु प्रकृतेरेव । तथा च कापिलाः "तस्मान्न वध्यते नापि मुच्यते नापि संसरति कश्चित् । संसरति वध्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृतिः।" तत्र वन्धः प्राकृतिकादिः। मोक्षः पञ्चविंशतितत्त्वज्ञानपूर्वकोऽपवर्गः । इति चतुर्थी । इति शब्दस्य प्रकारार्थत्वादेवं प्रकारमन्यदपि विरोधीति विरुद्धं पूर्वापरविरोधादिदोषाघ्रातं जडैः-मूखैस्तत्त्वाववोधविधुरधीभिः कापिलैः कियन्न ग्रथितं-कियन्न स्वशास्त्रेषूपनिवद्धम् ! कियदित्यसूयागर्भः तत्प्ररूपितविरुद्धार्थानामानन्त्येनेयत्तानवधारणात् । इति संक्षेपार्थः। व्याख्यार्थ-"चित्" अर्थात् आत्मखरूपमय चेतनशक्ति " अर्थशून्या" अर्थात् किसी पदार्थको जान नहीं सकती है। क्योंकि, पदार्थका जो निश्चय होता है वह बुद्धिके संबन्धसे होता है । यह प्रथम कल्पना है। महत्तत्त्व है नाम जिसका ऐसी जो "बुद्धिः" बुद्धि है वह स्वयं “जडा" जडखरूप है अर्थात् खय ज्ञानरूप नही हैचेतनाका जाननेमें केवल सहाय करती है। यह द्वितीय कल्पना है । " अम्बरादि" आकाश आदिक पांच भूततत्त्व " शब्दादितन्मात्रजम्" अर्थात् सूक्ष्मभूतरूप शब्दादि पाच तन्मात्राओंसे जात नाम उत्पन्न है । यह तीसरी कल्पना है । इस श्लोकके वाक्यमें "और" इस अर्थका वाचक एक "" शब्द ऊपरसे लगाकर अर्थ करना चाहिये । और “पुरुपय” अर्थात् जो प्रकृति तथा विकृतिमय पदार्थोंसे । इसके लगानेसे ऊपरका संबन्ध ठीक होता है । अर्थात् “ और आकाशादिक पांच भूततत्त्व शब्दादि पांच तन्मात्राओंसे उत्पन्न है" यह अर्थ ५ संबंधसहित होसकता है। च शब्द यदि न लगाया जाय तो " और " ऐसा दो वाक्योंको जोड़ना कैसे वनसकैगा? ॥११८॥
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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