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________________ . उससे वढते हुए है। इसी कारण वे अनन्तविज्ञानके धारक है । यद्यपि श्रीमहावीरजिनेन्द्रके जबसे अनतचतुष्टय संपदा उत्पन्न | हुई है, तभीसे वह अनन्तचतुष्टयसपदा सदा एकसी रहती है, इसलिये उसमें घटना और बढ़ना नहीं है । तथापि वह संपदा घटती नहीं है अर्थात् सदा समान रहती है। इस कारण उसमें वर्द्धमानताका अर्थात् वढनेपनेका उपचार (लक्षणा) किया जाता है। और यद्यपि 'श्रीवर्द्धमान' इस विशेषणके देनेसे अनंतविज्ञानपना भी भगवान्में सिद्ध हो गया। क्योंकि, यह अनन्तविज्ञान अनन्त | चतुष्टयमें अन्तर्गत (गिना जाता) है। तो भी अनन्तविज्ञान ही अन्य जीवोंका उपकार करनेमें समर्थ (असाधारण) कारण है और भगवान्की जो प्रवृत्ति अर्थात् उपदेश आदिका देना है ,उसमें परोपकार ही एक कारण है । इसलिये बाकीके तीन जो अनन्तदर्शन | आदि है, उनसे अनन्तविज्ञानको जुदा निश्चय करके आचार्यने यहांपर कहा है ।। । ननु यथा जगन्नाथस्यानन्तविज्ञानं परार्थ तथाऽनन्तदर्शनस्यापि केवलदर्शनापरपर्यायस्य पारार्थ्यमव्याहतमेव।। केवलज्ञानकेवलदर्शनाभ्यामेव हि स्वामी क्रमप्रवृत्तिभ्यामुपलब्धं सामान्यविशेषात्मकं पदार्थसाथै परेभ्यः प्ररूपयति । तत्किमर्थं तन्नोपात्तम् । इति चेदुच्यते । विज्ञानशब्देन तस्यापि संग्रहाददोषः, ज्ञानमात्रीया उभयत्राऽपि समानत्वात् । य एव हि अभ्यन्तरीकृतसमताधर्मा विषमताधर्मविशिष्टा ज्ञानेन गम्यन्तेऽर्थास्त एव ह्यभ्यन्तरी कृतविषमताधर्माः समताधर्मविशिष्टा दर्शनेन गम्यन्ते । जीवस्वाभाव्यात्। सामान्यप्रधानमुपसर्जनीकृतविशेषमलार्थग्रहणं दर्शनमुच्यते । तथा प्रधानविशेषमुपसर्जनीकृतसामान्यं च ज्ञानमिति । || शंका-जैसे भगवान्के अनतविज्ञान परके उपकारके लिये है, उसी प्रकार केवलदर्शन है दूसरा नाम जिसका, ऐसा जो अनन्त दर्शन है, वह भी बिना किसी वाधाके परोपकारके निमित्त ही है। क्योंकि भगवान् क्रमानुसार प्रवृत्त हुए जो केवलदर्शन और केवलINI ज्ञान है, उनसे जाना हुआ जो पदार्थोंका समूह है, उसीका अन्य जीवोंको उपदेश देते है। इसलिये यदि केवलज्ञानको भिन्न ग्रहण किया है, | तो अनन्तदर्शनको भी भिन्न क्यों नहीं ग्रहण किया ? अब इसका समाधान कहते है कि, 'अनंतविज्ञान' यहांपर जो विज्ञान शब्द है, उससे ज्ञानका तो ग्रहण है ही है। परंतु उस दर्शनका भी ग्रहण किया गया है । इसलिये जो तुम दोष देते हो सो ठीक नहीं है । १ इयत्तायाः । २ गौणीकृत । ३ सामान्याख्यधर्माः । ४ विशेषधर्मयुक्ताः । ५ गौणीकृत।
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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