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________________ रा.जै.शा. . साद्वादम. | सामान्यका भी प्रतिभास स्पष्ट रीतिसे होता ही है । और यदि शवल ऐसे केवल विशेपणकाही उच्चारण किया जाय तो भी वहां अर्थसे वा प्रकरणसे गोत्व सामान्यकी अनुवृत्ति होती ही है। और विशेष कहना यह है कि-शवलपना भी अनेक प्रकारका ॥१११॥ देखा जाता है । इस कारण शबल है, ऐसा मुखसे कहनेपर समस्त शबलत्व सामान्यको ग्रहण करके विवक्षित गो | व्यक्तिमें प्राप्त हुआ ही शबलपना सिद्ध किया जाता है । सो इस प्रकार वालकसे लेकर गोपालपर्यंत प्रतीतिद्वारा प्रसिद्ध ऐसे भी पदार्थके सामान्यविशेषात्मक खरूपमें परस्पर खतंत्र सामान्य विशेषका कथन करना प्रलापमात्र ही है। क्योंकि, विशेषके विना किये हुए IN सामान्यका अथवा सामान्यके विना किए हुए विशेषोंका किसी स्थलमें और किसी समयमें किसीने भी अनुभव नहीं किया है। * केवल एकांत पक्षरूपी दुर्नयकी वासनाको प्राप्त हुई अर्थात् एकांतपक्षकी धारक बुद्धिके व्यामोहवश होकर मूर्ख जन एकको छिपाकर दूसरेका स्थापन करते है । परंतु यह अंधगजन्याय है। भावार्थ-जैसे जन्मांध पुरुष हाथीके एक एक अवयवको ग्रहण करके हाथीका खरूप जुदे जुदे प्रकारसे सिद्ध करते है, उसी प्रकार एकांतपक्षसे अंधी हुई बुद्धिके धारक पुरुष भी सामान्य विशेष इन 1 दोनोंमेंसे एकको छिपाकर दूसरेको सिद्ध करते है। येपि च तदेकान्तपक्षोपनिपातिनः प्रागुक्ता दोपास्तेप्यनेकान्तवादप्रचण्डमुद्गरप्रहारजर्जरितत्वान्नोच्छुसितुमपि क्षमाः । और जो उन एकान्त पक्षोंके माननेमें संभवते दोष दिखाये थे वे भी अनेकान्तवादरूपी प्रचण्ड मूसलके प्रहारकर जर्जरित होनेसे श्वास भी नहीं लेसकते है । अर्थात् अनेकांतवादसे खंडित होजानेके कारण निष्फल है। स्वतन्त्रसामान्यविशेपवादिनस्त्वेवं प्रतिक्षेप्याः । सामान्यं प्रतिव्यक्ति कथंचिदभिन्नं कथंचित्तदात्मकत्वाद्विसशपरिणामवत् । यथैव हि काचिद्व्यक्तिरुपलभ्यमाना व्यक्त्यन्तराद्विशिष्टा विसदृशपरिणामदर्शनादवतिष्ठते तथा सदृशपरिणामात्मकसामान्यदर्शनात् समानेति; तेन समानो गौरयं सोनेन समान इति प्रतीतेः। न चास्य व्यक्तिस्वरूपादभिन्नत्वात्सामान्यरूपताव्याघातः। यतो रूपादीनामपि व्यक्तिस्वरूपादभिन्नत्वमस्ति; न च तेषां गुणरूपताव्याघातः । कथंचिद्व्यतिरेकस्तु रूपादीनामिव सदृशपरिणामस्याप्यस्त्येव पृथग्व्यपदेशादिभाक्त्वात्। ___अव सामान्य तथा विशेष पदार्थोंको सर्वथा खतन्त्र माननेवालोंका निराकरण इस प्रकार करना चाहिये।-सामान्य भी कथंचि ॥१११॥
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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