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________________ ॥१.९॥ on सरूपर्यायनयान्वयिनस्तु भावन्त्य नुभवकाले वर्णसंस्थता एतासु पञ्चस्वयमाप्रित्ययस्तु स्वहेतुदत्तशक्ति पावात् । न हिण्यानुभवाभावात्यात्मन ईक्षते स्याप्यम् । क्षणमें नष्ट होनेवा शौआदि व्यक्तिममा एक तथा सदा । स्थादादम. कि भिन्न हैं तो मेंडकके जटाभारके समान है । यदि कहो कि अभिन्न है तो जैसे सामान्यसे अभिन्न होनेके कारण सामान्यका राजै.शा. खरूप सामान्यरूप है उसी प्रकार वे विशेष भी सामान्यरूप ही होंगे। इस प्रकार सामान्यका एकांतविषयक वाद है। पर्यायनयान्वयिनस्तुभाषन्ते।-विविक्ताःक्षणक्षयिणो विशेषा एव परमार्थः, ततो विष्वगभूतस्य सामान्यस्याऽप्रतीयमानत्वात् । न हि गवादिव्यत्त्यनुभवकाले वर्णसंस्थानात्मकं व्यक्तिरूपमपहायाऽन्यत्किंचिदेकमनुयायि प्रत्यक्षे की प्रतिभासते; तादृशस्यानुभवाभावात् । तथा च पठन्ति । “एतासु पञ्चस्ववभासिनीषु प्रत्यक्षबोधे स्फुटमङ्गलीषु । साधारणं रूपमवेक्षते यः शृङ्गं शिरस्यात्मन ईक्षते सः।१।" एकाकारपरामर्शप्रत्ययस्तु स्वहेतुदत्तशक्तिभ्यो व्यक्तिभ्य एवोत्पद्यते । इति न तेन सामान्यसाधनं न्याय्यम् । ___ अब पर्यायास्तिक नयके अनुयायी बौद्ध कहते है कि, भिन्न और क्षण क्षणमें नष्ट होनेवाले जो विशेष है वे ही परमार्थN/ रूप है। क्योंकि उन विशेषोंसे भिन्नरूप किसी सामान्यकी प्रतीति नहीं होती है। कारण कि गौआदि व्यक्तियोंका जिस समय पू" अनुभव होता है उस समय वर्ण (रंग) तथा संस्थानखरूप जो व्यक्तिका आकार है, उसको छोड़कर अन्य कुछ भी एक तथा सव 1 व्यक्तियोंमें चले आते हुए पदार्थका अर्थात् सामान्यका प्रत्यक्षमें प्रतिभास नहीं होता है, क्योंकि ऐसे किसी पदार्थका अनुभव ही नहीं Lal होता है । सो ही विद्वानोने कहा है कि " प्रत्यक्ष ज्ञानमें प्रकटरूपसे दीखती हुई इन पांचों अंगुलियोंमें जो साधारण रूपको अर्थात् सामान्यको देखता है वह पुरुष अपने मस्तकपर सींगको देखता है।” और एक आकारके विचारकी प्रतीति तो अपने कारणोंसे उत्पन्न हुई है शक्ति जिनमें ऐसी व्यक्तियोंसे ही उत्पन्न होती है। इस कारण उस अनुवृत्तिप्रत्ययसे जो सामान्यको सिद्ध किया जाता है वह न्यायसंगत नहीं है। किं च यदिदं सामान्य परिकल्प्यते तदेकमनेकं वा ? एकमपि सर्वगतमसर्वगतं वा ? सर्वगतं चेकिं न व्यक्त्यन्तरालेधूपलभ्यते ? । सर्वगतैकत्वाऽभ्युपगमे च तस्य यथा गोत्वसामान्यं गोव्यक्तीः क्रोडीकरोति एवं किं न घटपटादिव्यक्तीरपि; अविशेषात् ? । असर्वगतं चेद्विशेषरूपापत्तिरभ्युपगमबाधश्च। ॥१०९॥ ___और भी अधिक वक्तव्य यह है, कि जो यह सामान्य कल्पित किया जाता है, वह सामान्य एकरूप है ? अथवा अनेकरूप है ? ५ यदि कहो कि एक है तो भी प्रश्न होता है कि वह सामान्य सर्वगत है वा असर्वगत है ? यदि कहो कि सर्वगत है तो वह शाददं सामान्य परिककत्वाऽभयुपगमे च तद्वशेषरूपापत्तिरपघासामान्य एकरूप है। का सर्वगत है तो वह
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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