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________________ विना विद्या अविद्याका द्वैत न होगा और विद्या अविद्याके द्वैतके विना बंधमोक्षका द्वैत न होगा । अर्थात् आगमके न माननेपर सर्व व्यवस्था लुप्त हो जायगी इसकारण आगमसे भी उस एक परम ब्रह्मकी सिद्धि नहीं होती है । और जब ऐसा हुआ तो एकपरमब्रह्मरूप तत्त्वही प्रमाणका विषय न रहा, किन्तु अन्य पदार्थ भी प्रमाणके विषय हुए और इसप्रकारसे प्रपंच सुव्यवस्थित हो गया अर्थात् वेदान्ती जो एक परमब्रह्मको ही सवरूप मानते थे और प्रपंचको मिथ्यारूप मानते थे उसका खंडन हुआ और जिस प्रकार ब्रह्म तत्त्व है, उसी प्रकार संसारके सभी पदार्थ तत्त्व हैं यह सिद्ध होगया; इस प्रकार काव्यका अर्थ है ॥ १३ ॥ म अथ स्वाभिमतसामान्यविशेषोभयात्मकवाच्यवाचकभावसमर्थनपुरस्सरं तीर्थान्तरीयप्रकल्पिततदेकान्तगोचरवा च्यवाचकभावनिरासद्वारेण तेषां प्रतिभावैभवाऽभावमाहः__ अब आचार्य अपने अभीष्ट ऐसे सामान्य तथा विशेष इन दोनों स्वरूपोंके धारक वाच्यवाचकभावका पहिले समर्थन करके तत्पश्चात् अन्यमतावलंबियोंका माना हुआ जो केवल सामान्य तथा केवल विशेषके गोचर ऐसा वाच्य और वाचकभाव है, उसका खंडन करके उसके द्वारा उन अन्यमतियों के उत्तमबुद्धिरूप संपदाका अभाव कहते हैं, अर्थात् वे वादी बुद्धिरहित है;| यह सूचित करते हैं: अनेकमेकात्मकमेव वाच्यं द्वयात्मकं वाचकमप्यवश्यम् । अतोऽन्यथा वाचकवाच्यक्लप्तावतावकानां प्रतिभाप्रमादः॥१४॥ सूत्रभावार्थः-वाच्य ( कहनेयोग्य पदार्थ ) सामान्यकी अपेक्षासे एकखरूप है, तौभी विशेषकी अपेक्षासे अनेकरूप ही है। और वाचक ( उन पदार्थों को कहनेवाला शब्द ) भी निश्चयकरके सामान्यकी अपेक्षासे एकरूप है और विशेषकी अपेक्षासे अनेकरूप ही है । इसकारण हे नाथ! जो अन्यमतावलम्बी इस उक्त सिद्धांतके विरुद्ध वाच्यवाचकभावकी कल्पना करते है। उनके उत्तम बुद्धिका नाश हो रहा है ॥ १४ ॥ व्याख्या-वाच्यमभिधेयं चेतनमचेतनं च वस्तु (एवकारस्याप्यर्थत्वात) सामान्यरूपतया एकात्मकमपि व्यक्तिभेदेनाऽनेकमनेकरूपम् । अथवाऽनेकरूपमपि एकात्मकमन्योऽन्यसंवलितत्वादित्थमपि व्याख्याने न दोषः । तथा
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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