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________________ च श्रुतकेवल्यादिष्वपि दृश्यतेऽतस्तदपोहायाप्त मुख्यमिति विशेषणम् । आप्तिर्हि रागद्वेपमोहानामैकान्तिक | आत्यन्तिकश्च क्षयः । सा येषामस्ति ते खल्वाप्ताः । अर्शआदित्वान्मत्वर्थीयोऽच् प्रत्ययः । तेषु मध्ये मुखमिव सर्वाङ्गानां प्रधानत्वेन मुख्यम् । शाखादेर्य इति तुल्ये यः । अमर्त्यपूज्यता च तथाविधगुरूपदेशपरिचर्या| पर्याप्तविद्याचरणसंपन्नानां सामान्यमुनीनामपि न दुर्घटा । अतस्तन्निराकरणाय स्वयम्भुवमितिविशेषणम् । स्वयमात्मनैव परोपदेशनिरपेक्षतयाऽवगततत्त्वो भवतीति स्वयम्भूः स्वयं संबुद्धः । तमेवंविधं चरमजिनेन्द्रं स्तोतुं स्तुतिविषयी कर्त्तुमहं यतिष्ये यत्नं करिष्यामि । और दोषरहितपना तो उपशान्तमोहनामक ग्यारहवें गुणस्थानमें रहनेवाले जो मुनि है, उनके भी हो सकता है। इसलिये पतन| रहित क्षीणमोहनामक बारहवें गुणस्थानको श्रीजिनेन्द्र प्राप्त हो चुके, यह जनानेके लिये 'जिन' यह विशेषण दिया है। क्योंकि, राग आदि दोषोंको जो जीतनेवाले है अर्थात् जिन्होंने जड़मूलसे राग आदि दोषोंको उखाड़ डाले है वे ही ' जिन ' कहलाते है । | तथा बाधारहित सिद्धान्तका धारकपना तो श्रुतकेवली आदिमें भी देखा जाता है । इसकारण उन श्रुतकेवली आदिको जुदे करनेके लिये ' आप्तमुख्य' यह विशेषण कहा गया है । राग, द्वेष और मोह इनका जो एकान्तिक (सर्वथा) तथा आत्यन्तिक अर्थात् फिर उत्पन्न न हो, ऐसे रूपसे नाश है, उसको आप्ति कहते है, वह आप्ति जिनके होवे वे आप्त हैं। उन आप्तोंमें जैसे शरीरके सब अंगों में मुख प्रधान है, उसीप्रकार जो मुख्य (प्रधान) होवें, उनको 'आप्तमुख्य' कहते है । [ मुख्य यहांपर मुखशब्दके आगे 'शाखादेर्यः' इस सूत्र से तुल्य (समान) अर्थमें य हुआ है । ] और देवोंसे पूज्यपना, उसप्रकारके अर्थात् भगवान् जैसे जो गुरु है, उनके उपदेश और सेवासे प्राप्त हुआ जो ज्ञान और चारित्र है, उस करके परिपूर्ण ऐसे सामान्य ( साधारण ) मुनियोंके भी दुर्लभ नहीं है । भावार्थ - ज्ञान और चारित्रसे युक्त साधारणमुनि भी देवोंसे पूजे जाते है । इस कारण उन सामान्य मुनियोंको दूर करनेके लिये 'स्वयंभू' 'यह विशेषण लगाया गया है। स्वयं अर्थात् परके उपदेशकी अपेक्षा ( जरूरत ) न रखकर अपने आप ही जो तत्त्वों को जाननेवाले हों वे स्वयंभू अर्थात् अपने आप ज्ञानको प्राप्त हुए कहलाते है, । इस प्रकार पूर्वोक्त विशेषणोंसहित जो अंतिमतीर्थकर महावीरखामी है, उनको ' स्तोतुं ' स्तुतिके गोचर करनेके लिये ' अहं ' मैं ( हेमचन्द्र ) ' यतिष्ये ' उद्यम करूंगा ॥ १ निःशेषीकृतेऽपि पुनरुद्भवमाशंक्य आत्यंतिकः अभूयः संभवदोषविनाश । २ ख पुस्तके - अभ्रादित्वान्मत्वर्थीयोऽप्रत्यय. । इति पाठः ।
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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