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________________ - है; उसको मिथ्यारूप कहेंगे; तो उनको विपरीत ख्याति खीकार करनी पड़ेगी और अनिर्वाच्यरूप तीसरे पक्षमें अर्थात् यदि वे यादव जो कहने योग्य नहीं है; उसको मिथ्यारूप कहें तो हम प्रश्न करते है कि यह अनिर्वाच्य क्या है ? यदि वे उत्तर देवें कि जो निःखभावता (खभावरहितपना) है वह अनिर्वाच्य है तो निःखभाव इस शब्द : निस्" इस अव्ययका प्रतिषेधरूप अर्थ || करनेपर और स्वभाव शब्दके जो भाव, और अभावरूप दो अर्थ है; उनमेंसे किसी एक अर्थकों खीकार करनेपर उनको असत्का ख्याति और सत्ख्यातिको स्वीकार करनेका प्रसंग होगा । भावार्थ- स्वभाव दो प्रकारका है एक भावरूप और दूसरा अभावरूप, इसलिये उन वादियोंके निःस्वभाव इस शब्दसे भावका निराकरण करनेपर असत्रख्यातिको और अभावका निराकरण करनेपर सत्रख्यातिको स्वीकार करना पड़ेगा और यह उनको अभीष्ट नहीं है । प्रतीत्यगोचरत्त्वं निःस्वभावत्वमिति चेत् अत्र विरोधः। न प्रपञ्चो हि न प्रतीयते चेत्कथं धर्मितयोपात्तः। कथं च प्रतीयमानत्वं हेतुतयोपात्तम् । तथोपादाने वा कथं न प्रतीयते । यथा प्रतीयते न तथेति चेत्तर्हि विपरीतख्यातिरियमभ्युपगता स्यात् । किञ्चेयमनिर्वाच्यता प्रपञ्चस्य प्रत्यक्षबाधिता । घटोऽयमित्याद्याकारं हि प्रत्यक्ष प्रपञ्चस्य सत्यतामेव व्यवस्यति । घटादिप्रतिनियतपदार्थपरिच्छेदात्मनस्तस्योत्पादात् । इतरेतरविविक्तवस्तूनामेव |च प्रपञ्चशब्दवाच्यत्वात् । यदि वादी यह कहें कि हम ‘निस् ' का प्रतिषेधरूप अर्थ करके स्वभाव शब्दसे भाव-अभावका ग्रहण नहीं करते है किन्तु जो प्रतीतिके अगोचर है उसको निःस्वभाव कहते है, तो ऐसा माननेपर उनको इस प्रकृत अनुमानके प्रयोगमें विरोध आता है। क्योंकि, जब प्रपंच है ही नहीं और उसकी प्रतीति ही नहीं होती है तव 'प्रपंच मिथ्यारूप है, प्रतीयमान होनेसे' इस अनुमानमें उन्होंने प्रपचको धर्मीरूपपनेसे कैसे ग्रहण किया है और प्रतीयमानत्वको हेतुरूपतासे कैसे ग्रहण किया है । और जो उन्होंने प्रपचको| धर्मीरूपसे तथा प्रतीयमानत्वको हेतुरूपसे ग्रहणकर लिया है तो फिर प्रपंच कैसे प्रतीत नही होता है । अर्थात् प्रपंचके प्रतीतिगोचरता सिद्ध होती ही है । यदि वादी कहें कि:- प्रपच जिसप्रकारसे प्रतीत होता है उस प्रकारसे वास्तवमें नहीं है इसलिये हम उसको प्रतीतिके अगोचर कहते है तो ऐसा कहनेपर उनको विपरीत ख्याति खीकार करनी पड़ेगी। और यह भी विशेष है कि,यह जो प्रपंचकी अनिर्वाच्यता है; वह प्रत्यक्षसे बाधित है । क्योंकि ' यह घट है' इस आकारका धारक जो प्रत्यक्ष है वह
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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