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________________ स्थाद्वादम. ॥९५॥ आप ज्ञानको अनुभाव्य खीकार करते ही है; क्योंकि, आपके मतमें ज्ञान स्वसंविदित है । समाधान यह तुम्हारा कथन ठीकरा .जै.शा. नहीं है। क्योंकि, जैसे ज्ञाता (जाननेवाले) को ज्ञातृतासे अर्थात् मै जाननेवाला हूं इसरूपसे अनुभव होता है; उसीप्रकार अनुभूतिके अनुभूतिपनेसे ही अनुभव होता है, और अनुभूतिको अनुभाव्यता दोष नहीं है अर्थान् अनुभूतिको अनुभाव्य माननेमें जो जो तुमने दोष दिया है, वह नहीं हो सकता है, क्योंकि वह अनुभूति अर्थकी अपेक्षासे तो अनुभूति है और अपनी अपेक्षासे अनुभाव्य है, इसकारण जैसे एक ही पुरुष अपने पिताकी अपेक्षासे पुत्रत्व और अपने पुत्रकी अपेक्षासे पितृत्व धर्मको अविरोधतासे धारण करता है अर्थात् भिन्न २ अपेक्षासे पुत्रत्व और पितृत्वरूप दोनों धर्मोको धारण करनेसे उस पुरुषमें कोई विरोध उत्पन्न नहीं होता है, इसी प्रकार अनुभूतिको भिन्न २ अपेक्षासे अनुभूतित्व और अनुभाव्यत्व धर्मको धारण करनेवाली माननेमें कोई विरोध ( दोष ) नही है । ___ अनुमानाच्च स्वसंवेदनसिद्धिः । तथा हि-ज्ञानं स्वयं प्रकाशमानमेवार्थ प्रकाशयति प्रकाशकत्वात्प्रदीपवत् । संवेदनस्य प्रकाश्यत्वात्प्रकाशकत्वमसिद्धमिति चेत् न । अज्ञाननिरासादिद्वारेण प्रकाशकत्वोपपत्तेः। और अनुमानसे भी ज्ञानके खसवेदनता सिद्ध होती है । सो ही अनुमानका प्रयोग दिखाते है कि,-ज्ञान जो है वह स्वय (अपनेको ) प्रकाशता हुआ ही अर्थको प्रकाशित करता है, प्रकाशक होनेसे, प्रदीपके समान अर्थात् जैसे प्रकाशक होनेसे प्रदीप आपके और पदार्थके दोनोंके स्वरूपको प्रकट करता है, उसीप्रकार ज्ञान भी प्रकाशक है अत: अपने और पदार्थके दोनोंके स्वरूपको जानता है । यदि कहो कि; ज्ञान प्रकाश्य (प्रकशित होने योग्य ) है अतः ज्ञान प्रकाशक (प्रकाश करने-18 वाला ) सिद्ध नहीं होता है सो नहीं, क्योंकि, ज्ञान जो है वह उत्पन्न होते ही अज्ञानके नाश आदिको करता है, इस कारण ज्ञानके प्रकाशकपना सिद्ध होता है। ॐ ननु नेत्रादयः प्रकाशका अपि स्वं न प्रकाशयन्तीति प्रकाशकत्वहेतोरनैकान्तिकतेति चेत्, न नेत्रादिभिरनै कान्तिकता । तेषां लन्ध्युपयोगलक्षणभावेन्द्रियरूपाणामेव प्रकाशकत्वात् । भावेन्द्रियाणां च स्वसंवेदनरूपतैवेति ॐ न व्यभिचारः । तथा संवित् स्वप्रकाशा अर्थप्रतीतित्वात् । यः स्वप्रकाशो न भवति नासावर्थप्रतीतिः । यथा घटः। १ज्ञान स्वप्रकाशकम्, अर्थप्रकाशकत्वात । यन्नैवं तन्नैवं यथा घट इति तात्पर्यम् ।
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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