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________________ खरूपका भी प्रकाशक है। यह प्रत्यक्षमें देखा जाता है इसकारण प्रदीपप्रकाशको अप्रकाशित मानने में प्रत्यक्षसे विरोध आता है यदि कहो कि एक प्रदीपके प्रकाशको किसी दूसरे प्रदीपका प्रकाश प्रकाशित करता है, तो इस कथनमें भी वही प्रत्यक्षसे बाधा आती है, क्योंकि, जहां एक ही प्रदीप प्रकाशित हो रहा है; उस स्थानमें उसको प्रकाशित करनेवाला कोई दूसरा प्रदीप देखनेमें नहीं आता है और एक प्रदीपके प्रकाशको दूसरे प्रदीपका प्रकाश और दूसरे प्रदीपके प्रकाशको तीसरे प्रदीपका प्रकाश प्रकाशित करेगा इत्यादिरूपसे अनवस्था दोपकी भी प्राप्ति होती है। NI अथ नासौ स्वमपेक्ष्य कर्मतया चकास्तीत्यस्वप्रकाशकः स्वीक्रियते, आत्मानं न प्रकाशयतीत्यर्थः । प्रकाशरूप तया तूत्पन्नत्वात्स्वयंप्रकाशत एवेति चेत्-चिरंजीव०। न हि वयमपि ज्ञानं कर्मतयैव प्रतिभासमानं स्वसंवेद्यं ब्रूमः, | ज्ञानं स्वयं प्रतिभासत इत्यादावकर्मकस्य तस्य चकासनात् । यथा तु ज्ञानं स्वं जानामीति कर्मतयापि तदाति, तथा प्रदीपः स्वं प्रकाशयतीत्ययमपि कर्मतया प्रथित एव । yा अब यदि ऐसा कहो कि-यह प्रदीपप्रकाश आपको अपेक्षित करके कर्मरूपसे नहीं प्रकाशित होता है। भावार्थ-एक पदा-1 में एक ही क्रियाद्वारा निरूपण किये हुए कर्तृत्व और कर्मत्वरूप दोनो धर्म नहीं रह सकते है इस कारण जो प्रदीप प्रकाशने । रूप क्रियाका कर्ता है, वही प्रदीप प्रकाशनेरूप क्रियाका कर्म नही हो सकता है; अतः हम प्रदीपको निजका प्रकाशक नही | MO मानते है, अर्थात् प्रदीपप्रकाश अपने आपको प्रकाशित नहीं करता है; और प्रकाशरूपतासे उत्पन्न हुआ है, इसकारण खयं ।। प्रकाशित होता ही है तो चिरंजीव, हम भी कर्मरूपतासे ही प्रतिभासते हुए ज्ञानको स्वसविदित (स्वप्रकाशक) नहीं कहते है अर्थात् जैसे तुम प्रकाशरूपतासे उत्पन्न हुए प्रदीपप्रकाशको खतः प्रकाशित मानते हो उसीप्रकार हम भी ज्ञप्तिरूपसे उत्पन्न | हुए ज्ञानको खसंविदित मानते है, क्योंकि, ' ज्ञान खयं प्रतिभासता है' इत्यादि प्रयोगोंमें कर्मरहित ज्ञान ही प्रतिभासता है। और जैसे हमारे पक्षमें 'ज्ञान अपने आपको जानता है। इस वाक्यमें कर्मरूपतासे भी ज्ञानका भान होता है; उसीप्रकार तुम्हारे पक्षमें प्रदीप अपने आपको प्रकाशता है, इस वाक्यमे प्रदीप भी कर्मरूपतासे जाननेमें आता ही है । १ एकत्र पदार्थे एकक्रियानिरूपितकर्तृत्वकर्मत्वयोर्विरोधादिन्यत्र योजनीयम् । २ 'ज्ञानं खं जानामीति वाक्यात् ज्ञानविषयकज्ञानवानहमिति शाब्दबोधत. ज्ञानस्यापि कर्मतया भानं भवतीति भावः ।
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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