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________________ स्थाद्वादमच्य ते” इति चेति पुरुषक्रियानुगत रूपमस्य । एतक्रियाऽभावे कथं भवितुमर्हति । न चैतत्केवलं क्वचिद्ध्वनदुप- राजै.शा. लभ्यते । उपलब्धावप्यदृश्यवक्राशङ्कासंभवात् । तस्मात् वचनं तत्पौरुषेयमेव । वर्णात्मकत्वात्कुमारसंभवादि॥८८ वचनवत् । वचनात्मकश्च वेदः । तथाचाहुः।-"ताल्वादिजन्मा ननु वर्णवर्गों वर्णात्मको वेद इति स्फुटं च । पुंसश्च ताल्वादिरतः कथं स्यादपौरुषेयोऽयमिति प्रतीतिः।१" इति । &ा और जो तुमने " हिंसाके करनेमें आगम प्रमाण है" ऐसा कहा है । सो वह तुम्हारा आगम भी हमारे प्रमाणभूत नहीं है । क्योंकि, वह आगम पौरुषेय ( किसी पुरुषका रचा हुआ ) है, वा अपौरुषेय (किसी पुरुषका नहीं रचा हुआ ) है ? यदि | कहो कि;-आगम पौरुषेय है, तो हम प्रश्न करते है कि, वह आगम सर्वज्ञ पुरुषकृत है, अथवा असर्वज्ञ पुरुषकृत है ? यदि उत्तर दो कि, सर्वज्ञ पुरुषकृत है; तब तो " इन्द्रियोंके अगोचर पदार्थोंको प्रत्यक्षमें देखनेवाला कोई नहीं है; अतः नित्य ऐसे जो वेदके वाक्य हैं; उनहीसे उन अतींद्रियपदार्थोंकी यथार्थताका ( अस्तित्व आदि स्वरूपका ) निश्चय होता है। १।" यह जो तुम्हारा सिद्धांत ( मत ) है; उसका खंडन होगा। यदि कहो कि, वह आगम असर्वज्ञ पुरुषसे रचा हुआ है तो वह असर्वज्ञ पुरुष दोषी है अर्थात् असर्वज्ञपनेरूप दोषका धारक है और वह आगम उससे किया हुआ है; अतः दोषीकृत आगममें अविश्वासका प्रसंग होगा। भावार्थ-दोषीकृत आगममें विश्वासका करना हम और तुम दोनोंको ही अभीष्ट नहीं है. यदि कहो कि वह आगम अपौरुषेय है, तो जैसे-खरूपरहित होनेसे घोड़ेका सींग असत् है; उसी प्रकार खरूपका | निराकरण होनेसे वह आगम अपौरुषेय हो ही नहीं सकता है। सो ही दिखलाते है कि, जो उक्ति अर्थात् बोलना है; उसको वचन कहते हैं. इसकारण वचनका स्वरूप पुरुषक्रियासे युक्त है; अतः वह वचन पुरुषक्रियाके बिना कैसे हो सकता है। भावार्थ-जब मनुष्य वचनके उच्चारण करनेमें प्रवृत्त होवे; तभी वचन उत्पन्न हो सकता है । और पुरुषक्रियारहित यह केवल वचन कहीं भी शब्द करता हुआ नहीं प्राप्त होता है। और यदि कही पुरुषक्रियाके विना शब्द करता हुआ यह वचन मिल जावे तो भी उस स्थानमें अदृश्य वक्ताकी अर्थात् अपने माहात्म्यसे हमारे तुम्हारे देखनेमें नहीं आनेवाला ऐसा जो वचनको ॥८८॥ कहनेवाला पुरुष है, उसकी आशंका हो सकती है। इसकारण अनुमान किया जाता है कि,-जो वचन है, वह पौरुषेय ही ) है। अक्षररूप होनेसे कुमारसंभव आदि ग्रन्थोंके वचनोंकी समान । भावार्थ-जैसे-अक्षररूप होनेसे कुमारसंभव काव्य
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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