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________________ उनकी भी भोज्यताका प्रसंग देवीको होगा । भावार्थ-यदि देवी मांसका भोजन करती है। ऐसा मानोगे तो देवीके निंबपत्रादिका भोजन करना भी सिद्ध होगा, जो कि तुमको अभीष्ट नहीं है । परमार्थसे (यथार्थमें) तो उन २ सहकारी कारणोंके संयोगकी सहायताको धारण करनेवाले जो आराधक पुरुष हैं उनकी भक्ति ही उस २ अभीष्ट फलको उत्पन्न करती है। क्योंकि,अचेतन चिन्तामणि रत्नादिमें ऐसा देखा जाता है। भावार्थ-जैसे चिन्तामणि रत्र अचेतन होनेसे किसीपर तुष्ट तथा रुष्ट नहीं होता है; उसी प्रकार देवी भी किसीपर तुष्ट, रुष्ट नहीं होती है। किन्तु उस आराधक पुरुषकी भक्ति ही अभीष्ट फल दे देती है। और जो अतिथियोंकी प्रीति है; वह तो संस्कारयुक्त ( मन्त्रादिके संस्कारसहित ) जो पक्वान्न आदि पदार्थ है; उनसे भी सिद्ध होती है; उस अतिथिप्रीतिके अर्थ महोक्ष ( बड़ा बैल ) और बड़े बकरे आदिका मारना केवल तुम्हारी मूर्ख-IIM ताको ही कहता है। पितॄणां पुनः प्रीतिरनैकान्तिकी । श्राद्धादिविधानेनापि भूयसां संतानवृद्धरनुपलव्धेः । तदविधानेऽपि च कषाचिद्गदेभशूकराजादीनामिव सुतरां तद्दर्शनात् । ततश्च श्राद्धादिविधानं मुग्धजनविप्रतारणमात्रफलमेव । ये||2 हि लोकान्तरं प्राप्तास्ते तावत्स्वकृतसुकृतदुष्कृतकर्मानुसारेण सुरनारकादिगतिषु सुखमसुखं वा भुञ्जाना एवासते । ते कथमिव तनयादिभिरावर्जितं पिण्डमुपभोक्तुं स्पृहयालवोऽपि स्युः । तथा च युष्मद्यूथिनः पठन्ति-"मृतानामपि जन्तूनां श्राद्धं चेत्तृप्तिकारणम्। तन्निर्वाणप्रदीपस्य स्नेहः संवर्द्धयेच्छिखाम् ॥१॥” इति । कथं च श्राद्ध विधानाधर्जितं पुण्यं तेषां समीपमुपैतु तस्य तदन्यकृतत्वात् जडत्वान्निश्चरणत्वाच्च । । और जो तुमने श्राद्धआदिके करनेसे पितृजनोंके प्रीतिका उत्पन्न होना कहा है; वह भी अनैकान्तिक ( सव्यभिचार ) दोषसे | न दूषित है । क्योंकि;-बहुतसे पुरुष श्राद्धआदि करते हैं; तोभी उनके करनेसे उनके संतानकी वृद्धि नहीं देखी जाती है || || अर्थात् श्राद्धादिके करनेपर भी कितनेही लोग संतानरहित ही रह जाते हैं। और श्राद्धादिके न करनेपर भी कितनेही पुरुषोंके गधा, सूअर, तथा बकरेआदिके समान अतिशयरूपसे (बहुतसी ) सन्तानकी वृद्धि देखते हैं । इस कारणसे सिद्ध हुआ कि, जो श्राद्धआदिका करना है। वह भोले मनुष्योंको ठगनेरूप ही फलका धारक है। क्योंकि, जो पितृजन परलोकको चले गये है, वे तो अपने कियेहुए पुण्य तथा पापकर्मके अनुसार देवगति तथा नारकगति आदिमें सुख अथवा दुःखको भोगते हुए ही
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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