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________________ तो पूजा आदिके करनेसे प्रसन्न करेगा और किसी दूसरे देवको निन्दाआदिके करनेसे अप्रसन्न ( कुपित ) करेगा तब एक ही | समयमें एकही मुखसे अनुग्रह तथा निग्रहरूप वाक्यके कहने में संकरदोषका प्रसङ्ग होगा अर्थात् प्रसन्न हुआ देव जिस समय | जिस मुखद्वारा उस पुरुष के प्रति अनुग्रह - वचन कहना चाहेगा उसी समय कुपित हुआ दूसरा देव उस पुरुषके प्रति निग्रह ( तिरस्कार ) रूप वचन कहना चाहेगा और ऐसी दशामें गड़बड मच जावेगी ; जोकि ; तुमको भी अभीष्ट नही है । और भी विशेष वक्तव्य यह है कि, मुख शरीरका नवम ( ९ वां) भाग है, वह भी जब देवोंके दाह स्वरूप है अर्थात् भस्म करनेवाला है; तब उन सब तैंतीस करोड़ देवोंमेंसे जो प्रत्येक देवका पूर्ण शरीर है वह भी यदि दाहखरूप हो जायगा; तो वह सब देवोंके सब शरीरोंका दाहरूप होना तीनों लोकोके भस्म करने में समर्थ ही होगा; ऐसी संभावना की जाती है । इसप्रकार इस विषय में बहुत कुछ चर्चा की जा सकती है; परन्तु उसको यहांही समाप्त करते है । यश्च कारीरीयज्ञादौ वृष्ट्यादिफला व्यभिचारस्तत्रीणितदेवतानुग्रहहेतुक उक्तः । सोऽप्यनैकान्तिकः क्वचिद् व्यभिचारस्यापि दर्शनात् । यत्रापि न व्यभिचारस्तत्रापि न त्वदाहिताहुतिभोजनजन्मा तदनुग्रहः । किंतु स | देवताविशेषोऽतिशयज्ञानी स्वोदेशनिर्वर्तितं पूजोपचारं यदा स्वस्थानावस्थितः सन् जानीते तदा तत्कर्त्तारं प्रति प्रसन्नचेतोवृत्तिस्तत्तत्कार्याणीच्छावशात्साधयति । अनुपयोगादिना पुनरजानानो जानानोऽपि वा पूजाकर्तुरभाग्य| सहकृतः सन्न साधयति । द्रव्यक्षेत्रकालभावादिसहकारिसाचिव्यापेक्षस्यैव कार्योत्पादस्योपलम्भात् । स च पूजोपचारः पशुविशसनव्यतिरिक्तैः प्रकारान्तरैरपि सुकरस्तत्किमनया पापैकफलया शौनिकवृत्त्या । और "जो कारीरी यज्ञादिके करने से वृष्टि आदिरूप फलमें व्यभिचार नहीं होता है अर्थात् कारीरी यज्ञादिके करनेसे वृष्टि आदि फल नियमसे होते ही हैं, उसमें उन यज्ञ आदिसे प्रसन्न किये हुए देवताओंका अनुग्रह ही कारण है " यह जो तुमने पहले कहा है, वह कहना भी अनैकान्तिक है क्योंकि, किसी २ स्थानमें यज्ञादिके करनेसे अभीष्ट फलकी प्राप्ति न होनेरूप व्यभिचार भी देखा जाता है । और जहां व्यभिचार नही होता है अर्थात् यज्ञादिके करनेसे अभीष्ट फल मिलता ही है; वहा भी तुम्हारी दी | हुई आहुतिके भोजन करनेसे उन देवोंका अनुग्रह नही हुआ है; किन्तु वह देवताविशेष अतिशय ( तुम्हारी अपेक्षा अधिक ) ज्ञानका धारक है अर्थात् अवधिज्ञानी है; इसकारण अपने स्थानमें स्थित हुआ ही वह देव जब अपने उद्देश्यसे किये हुए पूजा
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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