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________________ स्याद्वादम. रा-जै.शा. ॥८२॥ ॐ परलोकमें (अर्थात् दूसरे भवमें) उत्तमगति (वर्ग) को प्राप्त होते है, यह उन पशुओंके प्रति उपकार होता ही है; तो यह भी कहनेमात्र ही है। क्योंकि, इस कथनमें कोई प्रमाण नहीं है । कारण कि वे मरे हुए पशु उत्तम गतिकी प्राप्ति होनेसे प्रसन्न हो गया है चित्त जिनका ऐसे हो कर अर्थात् हर्षित होकर और वर्गमेंसे आकर किसीको अपने उत्तम गतिको प्राप्ति होनेका कथन नही करते है। यदि कहो कि इस हमारे कथनमें आगमनामक प्रमाण तो है ही है जैसे कि औषधियें, पशु, वृक्ष, तिर्यंच और पक्षी ये सब यदि यज्ञके लिये नाशको प्राप्त होवें तो फिर उत्तम गतिको प्राप्त ५ होते है। १।" इत्यादि और भी आगमके प्रमाण है । सो यह भी न कहना चाहिये । क्योंकि तुम्हारे आगमका पौरुपये (पुरुषका रचा हुआ) तथा अपौरुषेय (किसीका नहीं बनाया हुआ) इन दोनों विकल्पोंसे आगे खंडन किया जावेगा। भावार्थतुम्हारा आगम पौरुषेय भी नहीं सिद्ध होता है और अपौरुषेय भी नहीं सिद्ध होता है; इसकारण उस असिद्ध आगमका प्रमाण यहा माननेयोग्य नहीं है। न च ौतेन विधिना पशुविशसनविधायिनां स्वर्गावाप्तिरुपकार इति वाच्यम् । यदि हि हिंसयाऽपि स्वर्गप्रा स्यात्तर्हि वाढं पिहिता नरकपुरप्रतोल्यः। शौनिकादीनामपि स्वर्गप्राप्तिप्रसङ्गात् । तथा च पठन्ति परमार्षाः-" छित्त्वा पशून् हत्त्वा कृत्वा रुधिरकर्दमम्। यद्येवं गम्यते स्वर्गे नरके केन गम्यते । १।” किंचाऽपरिचिताऽस्पष्टचैतन्याऽनुपकारिपशुहिंसनेनापि यदि त्रिदिवपदवीप्राप्तिस्तदा परिचितस्पष्टचैतन्यपरमोपकारिमातापित्रादिव्यापादनेन यज्ञकारिणामधिकतरपदप्राप्तिः प्रसज्यते । अथ 'अचिन्त्यो हि मणिमन्त्रौषधीनां प्रभावः' इति वचनाद्वैदिकमन्त्रापुणामचिन्त्यप्रभावत्वात् तत्संस्कृतपशुवधे संभवत्येव स्वर्गप्राप्तिः, इतिचेत्-न । इह लोके विवाहगर्भाधानजातक र्मादिषु तन्मन्त्राणां व्यभिचारोपलम्भाददृष्टे स्वर्गादावपि तद्व्यभिचारोऽनुमीयते । दृश्यन्ते हि वेदोक्तमन्त्रसंस्कारविशिष्टेभ्योऽपि विवाहादिभ्योऽनन्तरं वैधव्याल्पायुष्कतादारियाद्युपद्रवविधुराः परःशताः। अपरे च मन्त्रसंस्कार विना कृतेभ्योऽपि तेभ्योऽनन्तरं तद्विपरीताः। अथ तत्र क्रियावैगुण्यं विसंवादहेतुः, इति चेत्-न।संशयानिवृत्तेः। किं तत्रक्रियावैगुण्यात्फले विसंवादः, किं वा मन्त्राणामसामर्थ्यादिति न निश्चयः। तेषां फलेनाविनाभावासिद्धेः। १ साख्याः । ॥८२॥
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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