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________________ अब यहांपर वादी शंका करता है कि, श्रीवर्द्धमानखामीके 'अनन्तविज्ञान' इतना ही विशेषण रहना चाहिये और 6 अतीतदोप' यह विशेषण न रहना चाहिये । क्योंकि, अठारह दोषोंको नाश हुए विना अनन्तविज्ञानत्वकी प्राप्ति ही नहीं होती; इसकारण 'अनन्तविज्ञान' इसके कहनेसे ही दोषरहितरूप अर्थका ग्रहण हो जाता है । इसका आचार्य 'समाधान करते है कि, हमने जो 'अतीतदोष' यह विशेषण दिया है सो व्यर्थ नहीं है; किन्तु खोटे नयवाले मतके धारक जीवोंने जिस आप्त ( यथार्थवक्ता ) को मान रक्खा है, उसको जुदा करनेके लिये है। क्योंकि आजीविक (बौद्धविशेष ) मतके धारक जीव इसी प्रकार कहते है कि “ धर्मतीर्थके करनेवाले ज्ञानी जीव संसारमें आकर धर्मतीर्थका प्रचार करके मोक्षमें चले जाते है। और जब संसारमें धर्मतीर्थका अनादर होता है, तब फिर मोक्षसे संसारमें आ जाते है। १।" इस प्रकार आजीविक मतवालोंके माने हुए आप्त निश्चयसे दोषरहित नहीं है। क्योंकि यदि वे दोषरहित होवें, तो तीर्थका अनादर देख करके भी मोक्षसे संसारमें कैसे आवै अर्थात् वे मोक्षमें जाकर फिर संसारमें आते है; इसलिये दोषसहित है। | आह । यद्येवमतीतदोषमित्येवाऽस्तु । अनन्तविज्ञानमित्यतिरिच्यते दोषाऽत्ययेऽवश्यंभावित्वादनन्तविज्ञान त्वस्य । न । कैश्चिद्दोषाऽभावेऽपि तदनभ्युपगमात् । तथा च तद्वचनम्- “सर्व पश्यतु वा मा वा तत्त्वमिष्टं तु IN पश्यतु ॥ कीटसङ्ख्यापरिज्ञानं तस्य नः कोपयुज्यते ।१।” तथा- "तस्मादनुष्ठानगतं ज्ञानमस्य विचार्यताम् । प्रमाण । दूरदर्शी चेदेते गृध्रानुपास्महे ।१।” तन्मतव्यपोहार्थमनन्तविज्ञानमित्यदुष्टमेव।विज्ञानानन्त्यं विना एकस्याऽप्यर्थस्य यथावत्परिज्ञानाऽभावात् । तथाचार्ष- “जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ । जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ ।। तथा "एको भावः सर्वथा येन दृष्टः सर्वे भावाः सर्वथा तेन दृष्टाः । सर्वे भावाः सर्वथा येन दृष्टा एको भावः सर्वथा तेन दृष्टः॥१२॥ फिर वादी शंका करता है कि, यदि आपने आजीवकमतवालोंके आप्तोंको दूर करनेके लिये अतीतदोष यह विशेषण दिया || है तो अतीतदोष यह विशेषण रहो परन्तु अब 'अनंतविज्ञान' यह जो विशेषण है सो अधिक होता है अर्थात् पू क-पुस्तके "सर्वं पश्यतु मा वा मा इष्टमर्थ तु पश्यतु।" इति पाठः । २ भवदभिमतस्य जिनस्य। ३ अनुष्टानं नाम कालान्तरभावीष्टोपायताज्ञा नपूर्वक करणं । ४ य एकं जानाति स सर्व जानाति । य सर्व जानाति स एकं जानाति । इतिच्छाया।
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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