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________________ साद्वादमं. ॥७१॥ HAN कोटावारोपितम् । तथा चाहुः-“दुःशिक्षितकुतर्कीश-लेशवाचालिताननाः। शक्याः किमन्यथा जेतुं वितण्डाटोपमण्डिताः।। गतानुगतिको लोकः कुमार्ग तत्प्रतारितः। मागादिति च्छलादीनि प्राह कारुणिको मुनिः।२।" कारुणिकत्वं च वैराग्यान्न भिद्यते । ततो युक्तमुक्तमहो विरक्त इति स्तुतिकारेणोपहासवचनम् । इस पूर्वोक्त प्रकारसे वैतंडिकलोक खभावसे ही अपने अपने अभीष्ट मतका स्थापन करनेमें चतुर है और उसमें जो उस वैतं-16 डिकलोकके परम आप्त ( यथार्थवक्ता ) खरूप पुरुषविशेष (गोतममुनि)के द्वारा कल्पना किये हुए दूसरोंका ठिगना है प्रधान जिनमें ध ऐसे वचनोंकी रचनारूप (पदार्थ ज्ञानसहित अपूर्व वाक्योंके बनाने रूप) उपदेश सहायक हो गया तब मानों गौतममुनिने अपने आप ही ज्वालाओंके समूहसे व्याप्त ऐसी जलती हुई अग्निमें घृतकी आहुतिका ही क्षेपण किया। भावार्थ-जैसे खतः जाज्वल्यमान अग्निमें घुतके गेरनेसे वह अग्नि द्विगुण-चतुर्गुणरूपसे प्रज्वलित हो जाती है। उसी प्रकार खभावसे ही वितंडाको धारण करनेवाले मनुप्योंमें गोतममुनिने छल आदिका उपदेश देकर उन मनुष्योंकी वितंडाको अत्यन्त बढ़ा दी है । और ससारमें संतोषको धारण करने | वाले अथवा ससारकी प्रशसा करनेवाले अर्थात् संसारको अच्छा समझनेवाले उन नैयायिक वादियोंने उस गोतममुनिका जो ऐसा अर्थात् संकट तथा प्रस्तावके आनेपर छलआदिके द्वारा अपने पक्ष (मत) की स्थापना करनी चाहिये; क्योंकि;-दूसरोंके जीतनेमें छल * आदिसे धर्मका नाश नहीं होता है। इस कारण छल आदिसे भी वादियोंको जीत लेना अच्छा है। इस प्रकारके उपदेशका जो देना है; उसको भी करुणवानपनेकी श्रेणीमें रक्खा है । सो ही वे नैयायिक कहते है कि,-अत्यन्त परिश्रमसे पढे हुए जो कुतर्क (खोटी दलीलें ) हैं उनके अशोंके लेशोंसे वाचालित (चकवाद करनेके लिये तत्पर हुए) मुखको धारण करनेवाले वादी अन्यप्रकारसे 21 अर्थात् छल आदिके विना कैसे जीते जा सकें। १ । लोक गतानुगतिक (देखादेखीसे गयेके पीछे जानेवाला) है, अतः उन वादियोंसे । ठिगा हुआ होकर उनका अनुकरण करके कुमार्गमें न चला जावे; इसी हेतुसे दयाके धारक गोतमऋपीने छल आदिका उपदेश VI दिया है । भावार्थ-यदि मै छल आदिका उपदेश न दूंगा तो भोले मनुष्य दूसरे वादियोंके मतमें चले जायेंगे, यही अपने मनमें विचारकर करुणाके धारक गोतममुनिने छल आदिका उपदेश दिया है। २।" और करुणायानपना वैराग्यसे जुदा नहीं होता है अर्थात् कारुणिकत्व और वैराग्य ये दोनों एकरूप ही है। इस कारण स्तुतिके कर्ता आचार्यमहाराजने जो " आश्चर्य है कि;-गोतम मुनि विरक्त है " ऐसा हास्यका वचन कहा है; सो ठीक ही कहा है। T
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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