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________________ अनन्तविज्ञानमतीतदोषमबाध्यसिद्धान्तममर्त्यपूज्यम् । श्रीवर्धमानं जिनमाप्तमुख्यं स्वयम्भुवं स्तोतुमहं यतिष्ये ॥ १॥ काव्यार्थः-अनन्तज्ञानके धारक, दोषोंसे रहित, बाधारहित सिद्धान्तवाले, देवोंकरके पूज्य, यथार्थवक्ता ओंमें प्रधान और स्वयमेव ज्ञानको प्राप्त हुए ऐसे श्रीवर्द्धमानजिनेन्द्रकी स्तुति करनेके लिये मैं प्रयत्न करूंगा ॥१॥ व्याख्या। श्रीवर्द्धमानं जिनमहं स्तोतुं यतिष्य इति क्रियासंवन्धः। किविशिष्टमनन्तमप्रतिपाति वि-विशिष्टं सर्वद्रव्यपर्यायविषयत्वेनोत्कृष्टं ज्ञानं केवलाख्यं विज्ञानं ततोऽनन्तं विज्ञानं यस्य सोऽनन्तविज्ञानस्तम् । तथा अतीता निःसत्ताकीभूतत्वेनाऽतिक्रान्ता दोषा रागादयो यस्मात्स तथा तम् । तथा अबाध्यः परैर्बाधितुमशक्यः सिद्धान्तः स्याद्वादश्रुतलक्षणो यस्य स तथा तम् । अमर्त्या देवास्तेषामपि पूज्यमाराध्यम् ॥ __व्याख्यार्थः- मै ( हेमचन्द्र सूरी ) श्रीवर्धमानजिनेन्द्रको स्तुतिगोचर करनेके लिये प्रयत्न करूंगा' इस प्रकार क्रियाका || || सम्बन्ध अर्थात् अन्वय है। कैसे विशेषणोंके धारक श्रीवर्धमानजिनको स्तुतिगोचर करनेके लिये यत्न करूंगा 2 अनन्त अन्तरहित अर्थात् || पतन(नाश) स्वभावसे रहित और विशिष्ट अर्थात् जीव अजीव आदि समस्त द्रव्य और उनके खभाव विभाव रूप भूत, भविष्यत् तथा IN| वर्तमान कालसंबन्धी जो अनन्त पर्याय है उनको विषयकरनेसे ( जाननेसे ) उत्कृष्ट ऐसा ज्ञान अर्थात् केवलनामक ज्ञान है| |जिनके उनको तथा अतीत अर्थात् जिनकी फिर कभी उत्पत्ति न हो ऐसे रूपसे दूर होगये हैं राग, द्वेष आदि अठारह दोष जिनसे || उनको और अबाध्य अर्थात् अन्य एकान्तवादियोंसे नहीं बाधा जा सकता है स्याद्वादशास्त्ररूप सिद्धान्त जिनका उनको तथा अमर्त्य | जो देव उनके भी पूज्य अर्थात् आराधने योग्य है उनको । भावार्थ-मै ( हेमचन्द्रसूरी ) केवलज्ञानके धारक, दोषोंसे रहित, बाधारहितशास्त्रवाले और देवोंसे पूज्य ऐसे श्रीमहावीरस्वामीको स्तुतिमें लानेके लिये उद्यम करूंगा ॥ | अत्र च श्रीवर्द्धमानस्वामिनो विशेषणद्वारेण चत्वारो मूलातिशयाः प्रतिपादिताः। तनाऽनन्तविज्ञानमित्यनेन
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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