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________________ स्वाद्वादम. राजै.शा. , शरीर हिमाणको ग्रहण करतामा । भावार्थ करके उत्तर परिमाणकोना) आदि नहीं होती तो नहीं । कथमा पूर्व परिमाणको शुर Bणावस्थायामात्मनो वालशरीरपरिमाणपरित्यागे सर्वथा विनाशाऽसम्भवात् । विफणावस्थोत्पादे सर्पवत् । इति कथं परलोकाभावोऽनुपज्यते । पर्यायतस्तस्याऽनित्यत्वेऽपि द्रव्यतो नित्यत्वात् । ॥६७॥ शंका-यदि आत्मा शरीरपरिमाण होगा तो जो आत्मा बालगरीरपरिमाण (बालकके शरीर जितना बड़ा ) है; वह युव-R 10 शरीरपरिमाण ( युवा अर्थात् जवान पुरुपके शरीर जितने बड़े आकार ) को कैसे ग्रहण करेगा ? क्या ? उस बालगरीरपरिमाणको छोड़कर युवशरीरपरिमाणको ग्रहण करेगा अथवा उस बालशरीरके आकारका त्याग न करके युवशरीरपरिमाणको स्वीकार करेगा । भावार्थ-जो आत्मा देवदत्तकी बालअवस्थाके छोटे शरीर जितना हैवही आत्मा जब देवदत्त जवान होगा तब उसके बड़े Kal शरीर जितना पूर्वपरिमाणको छोड़कर होगा ? वा विना छोड़े ही ? यदि कहो कि; आत्मा बालशरीरपरिमाणका त्याग करके युव-15 शरीरपरिमाणको ग्रहण करता है; तब तो शरीरके समान आत्मा भी अनित्य हो जावेगा । यह प्रसंग होगा । जिससे परलोक आदिके अभावका अनुपंग होगा। भावार्थ-जैसे पूर्वपरिमाणको छोडकर उत्तर परिमाणका स्वीकार करनेसे शरीर अनित्य है; ॐ उसी प्रकार आत्मा भी पूर्वपरिमाणका त्यागकरके उत्तर परिमाणको ग्रहण करनेसे अनित्य हो जावेगा और यदि आत्मा अनित्य हो । जावेगा तो फिर आत्माके परलोक ( अन्य २ जन्मोंका धारण करना ) आदि नहीं होगा; जोकि; आपको अनिष्ट है। यदि कहो कि, आत्मा बालशरीरपरिमाणका त्याग न करके युवशरीर परिमाणको ग्रहण करता है, तो सो नहीं । क्योकि, जैसे शरीरके पूर्वN) परिमाणका त्याग किये बिना उत्तर परिमाणकी उत्पत्ति की सिद्धि नहीं है। उसी प्रकार उस आत्माके भी पूर्व परिमाणको छोडे विना उत्तर परिमाणका उत्पन्न होना सिद्ध नहीं हो सकता है । समाधान-यह कहना ठीक नहीं है । क्योंकि; आत्मा जो युवशरीरपरिमाणको ग्रहण करते समय बालशरीरपरिमाणका त्याग करता है; उम बालगरीपरिमाणके त्यागमें आत्माका सर्वथा विनाश नहीं होता है जैसे कि-फणरहित अवस्थाके उत्पन्न होने सर्पका नाश नहीं होता है। भावार्थ-जो सर्प फणको फैला करके बैठा है, वही सर्प जब फणको संकोचता है, तब यद्यपि वह सर्प पहली फणसहितअवस्थाका त्यागकरके पिछली फणरहितअवस्थाको y ग्रहण करता है, तथापि उस सर्पका सर्वथा नाश नहीं होता है, इसी प्रकार यद्यपि आत्मा पूर्व वालशरीरपरिमाणरूप अवस्थाको छोडकर उत्तर युवशरीरपरिमाणरूप अवस्थाको स्वीकार करता है, तथापि आत्माका सर्वथा बिनाश नहीं होता है। किंतु किसी अपेक्षासे विनाश होता है । इस कारण परलोकका अभावरूप प्रसंग कैसे होता है अर्थात् जो तुमने पूर्वपरिमाणका त्याग किये
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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