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________________ अन्यच्च त्वयात्मनां वहुत्वमिष्यते " नानात्मानो व्यवस्थातः' " इति वचनात् । ते च व्यापकास्तेषां प्रदीपप्रभामण्डलानामिव परस्परानुवेधे तदानितशुभाशुभकर्मणामपि परस्परं सङ्करः स्यात् । तथा चैकस्य शुभकर्मणा अन्यः सुखी भवेदितरस्याऽशुभकर्मणा चान्यो दुःखीत्यसमञ्जसमापद्येत । अन्यच्चैकस्यैवात्मनः स्वोपात्तशुभकनामविपाकेन सुखित्वं परोपार्जिताशुभकर्मविपाकसम्बन्धेन च दुःखित्वमिति युगपत्सुखदुःखसंवेदनप्रसङ्गः । अथ स्वावष्टब्धभोगायतनमाश्रित्यैव शुभाशुभयो गस्तर्हि स्वोपार्जितमप्यदृष्टं कथं भोगायतनाबहिर्निष्क्रम्य वढेरू - ज्वलनादिकं करोतीति चिन्त्यमेतत् । vil तथा व्यवस्थासे अर्थात् आत्माके जन्म-मरण आदिके भिन्न २ होनेसे आत्मा अनेक हैं, इस वचनसे तुमने बहुतसे आत्मा माने है। और वे आत्मा व्यापक ( सर्वगत ) है, अतः जैसे प्रदीपोंकी प्रभाओंके समूह परस्पर ( एक दूसरेमें ) मिल जाते हैं; उसी प्रकार उन आत्माओंके भी परस्पर मिलजानेसे उन आत्माओंमें रहनेवाले जो शुभ तथा अशुभ कर्म है; वे भी परस्पर मिल जायेंगे । और जब उन भिन्न २ आत्माओंके शुभ-अशुभकर्मोका परस्पर मेल हो जावेगा तब एकके शुभकर्मसे दूसरा सुखी हो जावेगा तथा दूसरेके अशुभ कर्मसे दूसरा दुःखी हो जावेगा अर्थात् जिनदत्तकी आत्माके जो शुभकर्म है; उनसे देवदत्तका आत्मा सुखी हो जावेगा । और देवदत्तकी आत्माके अशुभ कर्मोंसे जिनदत्तका आत्मा दुःखी हो जावेगा इस प्रकार असमंजस अर्थात् अनुचित (घुटाला) हो जावेगा । और यही नहीं किन्तु एक ही आत्मा अपनेसे उपार्जन किये हुए शुभकर्मके उदयसे सुखी और दूसरे आत्माके द्वारा || उपार्जन किये हुए अशुभकर्मोंसे दुःखी हो जावेगा, और इसप्रकार होनेसे एक आत्माके एक ही समयमें सुख तथा दुःखका अनुभव होगा, जो कि; तुमको अनिष्ट है। यदि कहो कि,-आत्मा अपनेसे अवष्टब्ध (ग्रहण किये हुए) भोगायतनको आश्रय करके ही शुभअशुभको भोगता है अर्थात् जिस शरीरको आत्माने धारण कर रक्खा है; उस शरीरका अवलंबन करके ही आत्मा शुभ-अशुभ कर्मोंके सुख-दुःखरूप फलोंको भोगता है तो आत्माका खोपार्जित भी अदृष्ट भोगायतनसे बाहर निकलकर अग्निके ऊर्द्धज्वलन || आदिको कैसे करता है, यह विचारने योग्य है भावार्थ-जब आत्मा अपने शरीरमें रह कर सुखदुःख भोगता है; ऐसा तुम १ जन्ममरणादेः पार्थक्यात् ।
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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