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________________ __शंका-हमारे ज्ञान सुखरहित मोक्षमें हेयोपादेयके विचारमें चतुर पुरुषोंको संसारकी अपेक्षा विशेष लाभ है। भावार्थ|| अब वैशेषिक ऐसा कहते है कि, संसारमें जो सुख होता है; वह दुःखसे अस्पर्शित नहीं होता है. अर्थात् संसारसंबंधी सुखकी ||.G ला आदिमें भी दःख होता है और अंतमें भी दुःख होता है। और दुःख अवश्य छोड़ने योग्य है । तथा जैसे एक पात्रमें गिरे हए मध (सहत ) तथा विष (जहर) इन दोनोंमेंसे विषको निकालकर उसका त्याग कर देना अत्यंत कठिन है। उसी प्रकार इन सांसारिक MOI सुखदखोंमेंसे दु.खको जुदा करके उस दुःखका त्याग कर देना भी बहुत ही कठिन है । इस कारण संसार संबंधी सुख तथा दुःख | ये दोनों ही छोड़े जाते है । अतः संसारसे मोक्ष ही अच्छा है कि; जिसमें सर्वथा दुःख होता ही नहीं है। क्योंकि यह कभी कभी II होनेवाले सुखका अंश भी यदि छोड़ दिया जावे तो अच्छा है, परंतु उस थोड़ेसे सुखके अर्थ इतने दुःखोंके समूहका सहन करना ( भोगना ) अच्छा नहीं है। | तदेतत्सत्यम् । सांसारिकसुखस्य मधुदिग्धधाराकरालमण्डलायग्रासवदुःखरूपत्वादेव युक्तैव मुमुक्षणां तन्जिहासा। किन्त्वात्यन्तिकसुखविशेषलिप्सूनामेव । इहापि विषयनिवृत्तिजं सुखमनुभवसिद्धमेव । तद्यदि मोक्षे विशिष्टं नास्ति ततो मोक्षो दुःखरूप एवापद्यत इत्यर्थः । ये अपि विषमधुनी एकल सम्पृक्ते त्यज्यते ते अपि सुखविशेषलालिप्सयैव। किञ्च यथा प्राणिनां संसारावस्थायां सुखमिष्टं, दुःखं चानिष्टम् । तथा मोक्षावस्थायां दुःखनिवृत्तिरिष्टा, त्तिस्त्वनिष्टदैव । ततो यदि त्वदभिमतो मोक्षः स्यात्तदा न प्रेक्षावतां प्रवृत्तिः स्यात् । भवति चेयम् । ततः सिद्धो मोक्षः सुखसंवेदनस्वभावः । प्रेक्षावत्प्रवृत्तेरन्यथानुपपत्तेः। A समाधान—यह वैशेषिकोंका कहना सत्य है । क्योंकि संसारसंबंधी जो सुख है; वह सहतसे लिपटी हुई तथा तीक्ष्ण धार-IN || वाली ऐसी जो तलवारकी नोंक ( अणी) है; उसको भक्षणकरने (चाटने) के समान है अर्थात् जैसे सहतसे लिपटी हुई तलवारकी नोंकको चाटनेसे प्रथम ही कुछ सुख और अंतमें अत्यंत दुःख होता है; उसीप्रकार संसारका सुख भी पहिले कुछ सुखरूप और || || अंतमें महादुःखरूप ही है। इस कारण मोक्षके इच्छक पुरुष जो उस सुखको छोड़नेकी इच्छा करते है; वह युक्त ( ठीक ) ही है। परंतु जो एक प्रकारके आत्यंतिक सुखको चाहनेवाले मुमुक्षुजन है; उन्हींको सांसारिक सुखका त्याग करना चाहिये । अर्थात् यदि MA मोक्षमें आत्यन्तिक सुख होवे तब तो मोक्षाभिलाषियोंको सांसारिकसुखके त्यागदेनेकी इच्छाका करना उचित ही है और मोक्ष
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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