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________________ रा.जे. स्थाद्वादमं. ॥५४॥ तथा यदपि न संविदानन्दमयी च मुक्तिरिति व्यवस्थापनायामनुमानमवादि सन्तानत्वादिति। तत्राभिधीयते । ननु किमिदं सन्तानत्वं स्वतन्त्रमपरापरपदार्थोत्पत्तिमात्रं वा, एकाश्रयाऽपरापरोत्पत्तिर्वा । तत्राद्यः पक्षः सव्यभिचारः। अपरापरेषामुत्पादुकानां घटपटकटादीनां सन्तानत्वेऽप्यत्यन्तमनुच्छिद्यमानत्वात् । अथ द्वितीयः पक्षस्तहि तादृशं सन्तानत्वं प्रदीपे नास्तीति साधनविकलो दृष्टान्तः। परमाणुपाकजरूपादिभिश्च व्यभिचारी हेतुः। तथाविधसन्तानत्वस्य तत्र सद्भावेऽप्यत्यन्तोच्छेदाभावात्। अपि च सन्तानत्वमपि भविष्यति अत्यन्तानुच्छेदश्च भविष्यति।विपर्यये वाधकप्रमाणाऽभावात्। इति संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वादप्यनैकान्तिकोऽयम् । किञ्च स्थाद्वादवा दिनां नास्ति क्वचिदत्यन्तमुच्छेदो द्रव्यरूपतया स्थाष्णूनामेव सतां भावानामुत्पादव्यययुक्तत्वात् । इति विरुद्धश्च । IN|| इति नाधिकृतानुमानाबुद्ध्यादिगुणोच्छेदरूपा सिद्धिः सिध्यति । | और जो तुमने ' ज्ञान तथा सुखखरूप मोक्ष नहीं है। इस विषयको सिद्धकरनेके लिये सतानपनेसे अर्थात् ' आत्माके ज्ञान सुख आदि नवों विशेषगुणोंका संतान अत्यंत नाशको प्राप्त होता है, सतानपना होनेसे' ऐसा अनुमान कहा है। उसमें हम यह कथन करते है कि, वह संतानत्व क्या है ? अर्थात् खतत्र अपर अपर ( भिन्न २) पदार्थोंकी उत्पत्तिरूप ही संतानत्व है ? अथवा एक आश्रय ( अधिकरण ) में अपर अपर पदार्थों की उत्पत्तिरूप संतानत्व है। यदि कहो कि,- खतंत्ररूपसे जो भिन्न २ पदार्थों की उत्पत्ति है; वही संतानत्व है, तब तो यह तुम्हारा विकल्प व्यभिचार सहित है अर्थात् आत्माको ज्ञान-सुखरहित || सिद्ध करनेके अर्थ जो तुमने संतानत्व हेतु दिया है, वह व्यभिचारी है। क्योंकि उत्पन्न होनेवाले जो अपर अपर घट पट कट (चटाई ) आदि है, इनके संतानपना होनेपर भी अत्यंत नाशवानपना नहीं है। भावार्थ-वैशेपिकमतमें घट आदि सतानोंका निरन्वय नाश नहीं होता है अर्थात् नष्ट हुए घट आदि पदार्थोंका परमाणुपर्यन्त समवायी रहता है। इस कारण घट आदिक सतान है तो भी उनका सर्वथा नाश नहीं होता है। अत. प्रकृत अनुमानमें जो संतानत्व हेतु है; वह सर्वथा नष्ट होनेवाले ज्ञान सुख आदिमें भी रहता है और सर्वथा नष्ट न होनेवाले घट पटादिमें भी रहता है; इसकारण व्यभिचारी है। यदि कहो कि; एक ही आश्रयमें जो अपर अपर पदार्थोंकी उत्पत्ति है; वह संतानत्व है, तो ऐसा संतानत्व प्रदीपमें नहीं है, इसकारण साधनविकल दृष्टान्त है। भावार्थ-प्रदीपमें जो संतान है; उसका अधिकरण एक नहीं है। क्योंकि पूर्ववन्हिज्वाला ॥५४॥
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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