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________________ स्याद्वादमं. ॥ ५१ ॥ ग जैसे बढ़ईरूप कर्त्तासे कुठाररूप बाह्यकरणको भिन्न बताया है; उसीप्रकार किसी कर्त्ताको किसी अंतरंग करणसे सर्वथा भिन्न दिखलाओ तो दृष्टान्त तथा दान्तिक ( ज्ञान ) के समानता हो सकती है; परंतु इस प्रकारका कोई दृष्टान्त ही नहीं है । और बाह्यकरणमें प्राप्त जो धर्म है, उस सबको ही तुम अतरंगकरणमें नही लगा सकते हो। क्योंकि यदि वाह्यकरणके सब धर्मको अंतरंगमें लगाओगे तो देवदत्त दीपक और नेत्रसे देखता है, यहां जैसे देवदत्तसे दीप आदि भिन्न है, उसीप्रकार नेत्र भी देवदत्तसे सर्वथा भिन्न हो जावे और ऐसा होने पर लोककी प्रतीतिसे विरोध उत्पन्न होवे | अपि च साध्यविकलोऽपि वासिवर्द्धकिदृष्टान्तः । तथाहि - नायं वर्द्धकिः काष्ठमिदमनया वास्या घटयिष्य | इत्येवं वासिग्रहणपरिणामेनाऽपरिणतः सन् तामगृहीत्वा घटयति । किन्तु तथा परिणतस्तां गृहीत्वा । तथा परिणामे च वासिरप तस्य काष्ठस्य घटने व्याप्रियते पुरुषोऽपि । इत्येवं लक्षणैकार्थसाधकत्वाद्वासिवर्द्धक्योरभेदोऽप्युप पद्यते। तत्कथमनयोर्भेद एवेत्युच्यते । एवमात्मापि विवक्षितमर्थमनेन ज्ञानेन ज्ञास्यामीति ज्ञानग्रहणपरिणामवान् ज्ञानं गृहीत्वार्थं व्यवस्यति । ततश्च ज्ञानात्मनोरुभयोरपि संवित्तिलक्षणैककार्यसाधकत्वादभेद एव । एवं कर्तृकरयोरभेदे सिद्धे संवित्तिलक्षणं कार्यं किमात्मनि व्यवस्थितं आहोस्विद्विषय इति वाच्यम् । आत्मनि चेत्-सिद्धं | नः समीहितम् । विषये चेत्कथमात्मनोऽनुभवः प्रतीयते । अथ विषयस्थितसंवित्तेः सकाशादात्मनोऽनुभवस्तर्हि किं न पुरुषान्तरस्यापि । तद्भेदाविशेषात् । और भी यह दोष है कि, तुमने जो बढ़ई और कुठारका दृष्टान्त दिया है, वह साध्यसे विकल ( रहित ) है अर्थात् आत्मा और ज्ञान इन दोनोंके भेदको नहीं साध सकता है। सो ही दिखलाते है - वह बढई ' इस काष्टको इस कुठार ( कुहाड़े ) से घड्गा' ऐसा जो कुठारको ग्रहण करनेरूप परिणाम है; उससे अपरिणत ( रहित ) हो कर; उस कुठारको विना ग्रहण किये नहीं घडता है, किन्तु कुठारके ग्रहण करनेरूप परिणामसे सहित होकर उस कुठारको ग्रहण करके ही काष्टको घड़ता है । और जब वह वढई कुठारग्रहणरूप परिणामसे विशिष्ट हुआ तो सिद्ध हुआ कि कुठार भी उस काष्टके घडनेमें व्यापार करता है और वह बढईरूप पुरुषभी काष्टके घडनेमें व्यापार करता है । और इस उक्त प्रकारसे काष्टके घड़नेरूप अर्थक्रियाकी साधकतासे बढ़ई तथा कुठारके अभेद भी सिद्ध होता है अर्थात् जैसे कुठारसे काष्ट घड़ा जाता है, उसी प्रकार उस बढ़ईसे भी घड़ा जाता है; ॥ ५१ ॥ रा. जै. श
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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