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________________ साद्वादमं. ॥५०॥ । द्रव्य-(धर्मी) है और प्रकाश का दृष्टान्त दिया है, वह भी तुमार भी खयं परस्पर संबंधको प्राप्त होजायात जैसे समवायका र यदि च प्रदीपीकाशक है । यह तमाशरूप स्वभाव नहीं ही है, वह उससे भिन्न नाही तुमने अत्यंत भेद माक्योंकि;-पदीप तो । स्वभावाधात् । अपि च तापत्यन्तभेदेऽपि प्रदापनिर्मल ( निराधार है और जब प्रदीपका और तुम मदीप तथात प्रदीप है । ततः समवायमकथं सम्बन्धः परसम्बन्धनखभापत्य स्वपरप्रकाश अर्थात् असत्य ही प्रकाशरूप स्वभा तथा प्रकाशके 3 भी ऐसा स्वभाव क्यों नहीं है, जिससे कि, वे दोनो ज्ञान और आत्मा स्वयं ही संबंधको प्राप्त हो जावें अर्थात् जैसे समवायका @ स्वयं संबधित होजानेरूप स्वभाव है, वेसे ही ज्ञान और आत्माका भी खयं परस्पर संबंधको प्राप्त होजानेरूप स्वभाव मानलेना चाहिये । और जो तुमने प्रदीपका दृष्टान्त दिया है, वह भी तुझारे पक्ष ( मत ) में घटित नहीं होता है। क्योंकि-प्रदीप तो . द्रव्य (धर्मी) है और प्रकाश, उस प्रदीपका धर्म है, तथा धर्म और धर्मी इन दोनोंके तुमने अत्यंत भेद माना है। अतः प्रदीप प्रकाशरूप कैसे हो सकता है ? अर्थात् जो जिसका स्वभाव होता है, वह उससे भिन्न नहीं रहता है और तुम प्रदीप तथा प्रकाशके सर्वथा भेद मानते हो, अतः प्रदीपका प्रकाशरूप स्वभाव नहीं हो सकता है । और जब प्रदीपका प्रकाशरूप स्वभाव ही न रहा। तब 'प्रदीप स्वपरप्रकाशक है ' यह तुम्हारा कहना निर्मूल (निराधार ) अर्थात् असत्य ही है। ४ यदि च प्रदीपात्प्रकाशस्यात्यन्तभेदेऽपि प्रदीपस्य स्वपरप्रकाशकत्वमिष्यते तदा घटादीनामपि तदनुपज्यते । भेदाविशेषात् । अपि च तौ स्वपरसम्बन्धनस्वभावौ समवायाद्भिनौ स्यातामभिन्नौ वा । यदि भिन्नौ ततस्तस्यैतौ स्वभावाविति कथं सम्बन्धः। सम्बन्धनिवन्धनस्य समवायान्तरस्यानवस्थाभयादनभ्युपगमात् । अथाऽभिन्नौ ततः समवायमात्रमेव । न तौ । तदव्यतिरिक्तत्वात्तत्स्वरूपवदिति । किञ्च यथा इह समवायिपु समवाय इति मतिः समवायं विनाप्युपपन्ना तथा इहात्मनि ज्ञानमित्ययमपि प्रत्ययस्तं विनैव चेदुच्यते तदा को दोपः। ___और यदि तुम प्रदीपसे प्रकाशके अत्यत भेद होनेपर भी प्रदीपके निज तथा परका प्रकाशकपना मानोगे, तो घट आदिके भी स्वपरप्रकाशकताका प्रसग होगा। क्योंकि, भेदका अविशेष है अर्थात् जैसे प्रदीपसे प्रकाश भिन्न है, उसी प्रकार घट पट आदिसे IN भी प्रकाश भिन्न है। तथा यह भी विशेप प्रष्टव्य है कि,-समवायके जो स्व तथा परका संबध करनेरूप स्वभाव है, वे समवायसे । भिन्न है ? अथवा अभिन्न है ? । यदि कहो कि; समवायसे भिन्न है; तब तो ये दोनों स्वपरसे संबधकरनेरूप स्वभाव समवायके है, IN इस प्रकारका सवध कैसे हुआ । क्योंकि;-इन स्वभावोको समवायमें सबंधित करनेवाला जो दूसरा समवाय है, उसको तुमने 11 अनवस्थाके भयसे स्वीकार नहीं किया है । यदि कहो कि,-वे निज तथा परका प्रकाश करनेवाले स्वभाव समवायसे अभिन्न है, तो वे दोनों स्वभाव समवायरूप ही है; समवायसे भिन्न वे दोनों स्वभाव नहीं है । क्योंकि, वे दोनों समवायके स्वरूपके समान समवायसे अभिन्न है भावार्थ-जैसे अभिन्न होनेसे समवायका स्वरूप समवायरूप ही है, इसी प्रकार ये स्वप्रकाशक और परप्र-d
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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