SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 100
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ राजै.शा. सामान्यत्वको जातिरूप माननेसे अनवस्था होती है। ४ । विशेपोंमें विशेषत्वधर्म जातिरूप नहीं है। क्योंकि; विशेषों में विशेषत्वको स्थाद्वादमा जातिरूप माननेसे विशेषके खत व्यावर्त्तकत्वरूप खरूपका नाश होता है । ५। समवायमें समवायत्व जातिरूप नहीं है। क्योंकि, ॥४५॥ समवाय एक है; अतः समवायमें समवायत्वका संबंध करानेवाला दूसरा समवाय नहीं है।६। इस कारण सत् पदार्थोमें भी किसी |किसीमें सत्ता रहती है, न कि सबमें यह जो हमारा मत है, वह निश्चित होचुका । । तथा चैतन्यमित्यादि । चैतन्यं ज्ञानमात्मनः क्षेत्रज्ञादन्यदत्यन्तव्यतिरिक्तम् । असमासकरणादत्यन्तमिति लभ्यते । अत्यन्तभेदे सति कथमात्मनः सम्बन्धि ज्ञानमिति व्यपदेशः। इति पराशङ्कापरिहारार्थ औपाधिकमिति विशेषणद्वारेण हेत्वभिधानम् । उपाधेरागतमौपाधिकम् । समवायसम्बन्धलक्षणेनोपाधिना आत्मनि समवेतमात्मनः स्वयं जडरूपत्वात्समवायसम्वन्धोपढौकितमिति यावत् । यद्यात्मनो ज्ञानादव्यतिरिक्तत्वमिष्यते तदा दुःख जन्मप्रवृत्तिदोपैमिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदनन्तराभावावुद्ध्यादीनां नवानामात्मविशेषगुणानामुच्छेदावसरे 7iआत्मनोऽप्युच्छेदः स्यात् । तदव्यतिरिक्तत्वादतो भिन्नमेवात्मनो ज्ञानं यौक्तिकमिति । __ अब 'चैतन्य' इत्यादि पादकी व्याख्या करते है। " चैतन्यं " ज्ञान जो है; वह "आत्मनः" आत्मासे “ अन्यतन अत्यंत भिन्न है। [यहां आत्माशब्दके साथ अन्यत्शब्दका समास न करनेसे भिन्न ही नहीं किंतु अत्यंत भिन्न है, यह अर्थ प्राप्त 18 होता है।]" यदि ज्ञान और आत्माके अत्यंत भेद है तो 'ज्ञान आत्माका संबंधी है।' ऐसा कैसे कहा जाता है।" इसी प्रतिवादियोंकी शकाको दूर करनेके लिये 'औपाधिकम् ' इस विशेषणके द्वारा हेतुका कथन करते है। " औपाधिकम" उपाधिसे आया हुआ है अर्थात् समवायसंबधरूप जो उपाधि है, उस उपाधिसे ज्ञान आत्मामें मिला हुआ है । भावार्थ-आत्मा | स्वयं जहरूप ( ज्ञानशून्य ) है; इस कारण समवायसंबधने ज्ञानको आत्मामें मिला दिया है। क्योंकि, यदि आत्माको ज्ञानसे 12 II भिन्न (जुदा) न माने तो दुःख, जन्म, प्रवृत्ति, दोष और मिथ्याज्ञान; इनमें क्रमश. उत्तरका नाश होनेसे पूर्वका नाश होनेपर | बटि आदि जो नौ ९ आत्माके विशेषगुण है; उनका नाश होवेगा और जब बुद्धिआदिका नाश होगा तब उसी समय PM आत्माका भी नाश हो जावेगा। क्योंकि आत्मा इनसे भिन्न नहीं है । भावार्थ-हमारे मतमें तत्त्वज्ञानके होनेसे मिथ्याज्ञानका ।। LO॥४५॥ तत्त्वज्ञानान्मिध्याज्ञानापाये दोषा अपयान्ति । तदपाये प्रवृत्तिरपति । तदपाये जन्मापैति । तदपाये एकविंशतिभेद दु.खमपैतीति । २ वाङ्मन कायन्यापारः शुभाशुभफल. प्रवृत्तिः ३ रागद्वेषमोहास्नयो दोपाः ईयादीनामेष्वन्तर्मावः॥
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy